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वारणतरण
श्रावकाचार
सम्यग्दर्शनका प्रकाश होजाता है (तस्य शेष गुण नाथस्य) उस अनन्तगुणके स्वामीके भीतर ( अनंतय * गुण आसक्तं ) अनंत गुण पाए जाते हैं।
विशेषार्थ-क्षाधिक सम्यग्दर्शनके प्रकाश होते ही इस आत्माके भीतर गुणोंका विकाश होने लगता है। यह आत्मा स्वभावसे अनंतगुणोंका स्वामी है। घातिया कर्मों के आवरणके कारण वे गुण प्रगट नहीं हैं। क्षायिक सम्यग्दर्शनके होनेपर वह महात्मा अधिक काल तक छमस्थ नहीं रहता है। यातो उसी ही जन्ममें केवल ज्ञानी होजाता है या बीचमें एक भव देव या नारकीका लेकर मनुष्य हो केवलज्ञानी होजाता है या यदि सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिसे पहले तिर्यच आयु या मनुष्य आयु बांधली हो तो भोगभूमिमें जाकर फिर वहांसे देव होकर फिर मनुष्य हो नियमसे केवलज्ञानी होजाता है। जैसे सूर्यके ऊपर मेघोंका आवरण या इससे उसकी किरणें नहीं फैलती थीं। सर्व आवरण हट जानेसे पूर्णपने किरणोंका प्रकाश होजाता है उसी तरह ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अंतराय इन चार घातिया कोंके उदयसे आस्माके अनंतगुण प्रच्छन्न थे, अप्रगट थे। जब इन चारोंकाक्षय होजाता है तब अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत वीर्य, यथाख्यातचारित्र,क्षायिक सम्यक्त, अनन्त सुख आदि प्रकाशमान होजाते हैं। इन सबमें प्रथम क्षायिक सम्यक्त होता है । जबतक क्षायिक सम्यग्दर्शन प्रगट न हो तबतक कोई महात्मा क्षपक श्रेणीपर नहीं चढ़ सकता है। क्षपक श्रेणीपर जानेसे ही दसवें सूक्ष्मसांपराय गुणस्थानके अंतमें चारित्र मोहका पूर्ण क्षय होजाता है। तब ही क्षीण मोह बारहवां गुणस्थानवर्ती होजाता है और वहां यथाख्यात चारित्र प्रकाशमान होजाता है। फिर इस गुणस्थानके अन्तमें शेष तीन घातीय कर्मोंका क्षय होता है, तब तेरहवें गुणस्थानमें सर्वाग केवली होकर अरहंत नाम पाता है। पूर्ण गुण विकाशी परमात्मा हो जाता है। भावार्थ यह है कि सम्यग्दर्शन ही वास्तवमें परमात्म पदका कारण है। इसलिये जो अपना सच्चा हित चाहें उनको उद्यम करके सम्बग्दशेनको अपने भीतर अवश्य प्रकाश करना चाहिये । यही मोक्षकी सीढी है।
श्लोक-सम्यक्तं येन दिष्टंते, उदयं भुवनत्रयं ।
लोकालोकविलोकंच, आलवाले मुखं यथा ॥२२४॥ अन्वयार्थ-(येन सम्यक्तं दिष्टते) जिसने सम्यग्दर्शनका अनुभव कर लिया है उसको (भुवनत्रयं
V॥२२॥