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बारबबरण
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उदय) तीन लोकका ज्ञान होगया है (कोकालोकविलोकं च ) उसने लोक अलोकको उसी तरह देख लिया है (यथा मालवाले मुख) जैसे निर्मल जलके कुंडमें मुख दिख जाता है।
विशेषार्थ-सम्यग्दर्शन तब ही होता है जब स्वपरका भेद विज्ञान हो, आत्मा व अनात्माका भिन्न २ लक्षण प्रगट होजावे। यह तीन लोक इनही दो पदार्थों का समुदाय है। तथा अलोकाकाश भी अनास्मामें गर्भित है। सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिका राजमार्ग यह है कि छ. द्रव्य, पांच अस्तिकाय, सात तत्व, नौ पदार्थोंका ज्ञान, व्यवहार नय तथा निश्चय नयसे यथार्थ प्राप्त किया जावे। जिसने इन सबको समझ लिया उसने तीन लोक व अलोकको वास्तव में उसी तरह देख लिया जैसे निर्मल जलस्थानमें अपना मुख दिख जाता है। सम्पत्तीका आत्मा निर्मल होता है। उसमें कोई वस्तु आश्चर्यकारी नहीं भासती है। शास्त्रज्ञानक बलसे वह सर्व जगतके द्रव्योंके तत्वोंका जानकार होजाता है। यह तो परोक्ष लोकालोकका ज्ञान होना है। फिर यही सम्यक्ती जीव जब उन्नति करता है तब साक्षात् अईन्त परमात्मा होजाता है। उस समय तो प्रत्यक्ष ज्ञान भी सर्व लोकालोक अपने अनन्त गुण पर्याय सहित एक साथ स्पष्ट झलक जाते हैं। वास्तव में सम्यक्त एक अपूर्व दर्पण है, जिससे अपना शुरआत्मा कर्ममेल से मिला हुआ होनेपर भी कर्मसे पृथक्झलकता है, स्वानुभवमें आता है, उसके आनन्दका स्वाद आता है। सम्यक्तीको जीवन्मुक कहें तो कुछ अनुचित नहीं है। वह सदा सुखी रहता है, वह सीधा मोक्षनगरको चला जारहा है। ऐसे सम्यक्तको जिस तरह बने प्राप्त करना चाहिये।
आठ मूल गुण। श्लोक-मूलगुणं उत्पाद्यते, फल पंच न दिष्टते ।
बड पीपल कठुम्बर, पाकर उदंबरंस्तथा ॥ २२५ ॥ अन्वयार्थ-(मूलगुणं उत्पाद्यते ) सम्यग्दष्टीको मुलगुण पालने चाहिये (फल पंच न दिष्टते ) उसे पांच र फल न लेने चाहिये (बढ पीपल कटुम्बर पाकर उदवरंस्तथा ) वडका फल, पीपलका फल, अंजीरका फल, । पाकर फल तथा उदम्बर या गूलर ।
MR९॥