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________________ वारणवरण ॥२२८॥ विशेषार्थ — बंड आदि पांच फलोंमें त्रस जीव होते हैं । इसलिये दयावान प्रांणी ऐसे फलोंको नहीं लेता है जिनके खानेसे त्रस जंतुओंका घात हो । इन फलोंको न गीला अर्थात् हरा खाना चाहिये और न सूखा खाना चाहिये । क्योंकि खनेपर वे बस जंतु सूख जांयगे । उनका कलेवर मांस होता है। सूखे मांसके खानेका दोष आता है । सागारधर्मामृत में भी कहा है: पिप्पलोदुंबरप्लक्षवटफलगु फलान्यदन् । हंत्यार्द्राणि त्रसान् शुष्काण्यपि स्वं रागयोगतः ॥ १३-२ ॥ भावार्थ – पीपल, गूलर, पाकर, वड और कठूमर या अंजीर इन पांच वृक्षोंके हरे फल या सुखे फल जो खाता है वह राग भावकी अधिकतासे अनेक स जंतुओंका घात करनेवाला है । सम्पदृष्टी विवेकी होजाता है । वह खानपान ऐसा रखना चाहता है जिससे शरीर स्वास्थ्य ठीक रहे, धर्मध्यान में बाधा न पड़े, तथा अस व स्थावर दोनों प्रकारके प्राणियोंकी हिंसा जितनी होसके उतनी कम होवै । वह जिह्वाका लम्पटी नहीं रहता है । इसलिये जिन फलों में प्रत्यक्ष कीडे उडते दीखते हैं अथवा कीडोंकी उत्पत्तिकी बहुत संभावना है उन फलोंको दयावान सम्यग्दृष्टी नहीं खाता है। ऐसे अनेक फल हैं जिनमें ब्रस जंतु होते हैं, उनमें यहां पांच मुख्य गिनाए हैं। इसी तरह के और भी जो फल हों जिनमें त्रस जंतु पाए जावें उनको दयावान नहीं खाता है। शुद्धाहार शरीर व मन दोनोंका रक्षक है। श्लोक – फलानि पंच त्यक्तंति, त्रसस्य रक्षणार्थं च । अतीचारा उत्पादते, तस्य दोष निरोधनं ॥ २२६ ॥ अन्वयार्थ — ( त्रसस्य रक्षणार्थं च ) श्रस जंतुओंकी रक्षा करनेके हेतुसे ही (पंच फलानि त्यक्कंति ) पाव फलोंका त्याग किया जाता है । (अतीचारा उत्पादते) इनके अतीचार जो जो पैदा होते हैं (तस्य दोष निरोधन) उन दोषों को भी रोकना उचित है । विशेषार्थ — दयावान गृहस्थ को यह विचार रखना चाहिये कि उसके खानपान के निमित्त से सजीवोंका घात न हो तौही ठीक है । इसलिये जैसे बड, पीपल आदि फलोंको त्रस जीवोंकी रक्षार्थ त्यागा जाता है वैसे ही और भी फलोंको जिनमें कीडोंके पैदा होनेकी सम्भावना है उनको श्रावका कार ॥२२८॥
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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