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________________ t वारणतरण ॥२२९॥ र नहीं लेना चाहिये । तथा हरएक फलको या बंद बादाम, सुपारी, इलायची, छुहारा आदिको तोडकर श्रावकाचार व भले प्रकार देखकर खाना चाहिये। शरदी गरमी आदि कई निमित्तोंसे उनके भीतर त्रस जंतुओंका ४ पैदा होना संभव है। बहुधा फलोंके भीतर कीडे चलते हुए दिखलाई पड़ते हैं। श्लोक-अन्नं यथा फलं पुहुवं, वीयं सम्मूर्छनं यथा । तथा हि दोष त्यक्तंते, अनेके उत्पाद्यते यथा ॥ २२७॥ अन्वयार्थ–(अन्नं यथा ) इसी तरहका जो अन्न हो घुन गया हो (फलं पुहुवं) फल तथा फूल, (वीर्य) 1 बीज, (सम्पूर्छनं यथा ) घास शाक आदि (तथा हि दोष त्यक्तंते ) वैसा ही दोष देखकर छोड़ देना चाहिये (अनेके यथा उत्पाबते ) उसी समान अनेक त्रस जंतु जहां उत्पन्न हो। विशेषार्थ-अन्न जो पुराना हो घुन गया है काली फुल्ली पड़ गई हो वह भी त्रस जीवोंका स्थान जानकर त्याग देना चाहिये । फल जो सड गया हो उसमें त्रस जीव उत्पन्न होगए हैं ऐसा जानकर न खाना चाहिये। फूल जातिको न खाना चाहिये । फूलोंके आश्रय बहुतसे अस जंतु पैदा होते हैं और उनमें विश्राम करते हैं। गोभीका फूल बहुतसे त्रस जंतुओंका स्थान है। जिन पीजोंके भीतर ब्रस जंतुकी संभावना हो उनको भी न खाना चाहिये । शाक पत्तियां जिनमें ब्रस जंतुओंके * बैठनेकी संभावना हो न लेना चाहिये । जहां त्रस जंतु पैदा होते हो उन उन वस्तुओंको न खाना & चाहिये । बुसी हुई मिठाई आदि तथा पहले बता चुके हैं, कौनसा भोजन कितनी देर तकका बना* खाना चाहिये, पीछे इस जंतु पैदा होजायंगे। दयावानोंको निरंतर ताजा शुद्ध भोजन करना चाहिये व अच्छे ताजे फलोंको तोडकर देखकर खाना चाहिये। अजान फलोंको भी विना जाने न खाना चाहिये । जिसमें त्रस जंतुओंकी रक्षा हो वह कार्य करना चाहिये । दयावान गृहस्थ अपने जीवनके समान क्षुद्र जंतुओंके भी जीवनको समझता है। तथा जब कोई प्राणी अपना मरण नहीं चाहता है तब हमारा कर्तव्य है कि उनके प्राणोंकी रक्षा करते हुए हम अपना खानपानादि करें। श्लोक-मद्यं च मानसंबंध, ममता रागपूरितं । अशुद्ध अलाप वाक्य, मद्यदोष संगीयते ॥ २२८ ॥ ॥२१५
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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