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________________ नरम ४ावर ॥२०॥ अन्वयार्थ-(म) मदिरा (च) और (मानसम्बन्धं ) मान सम्बन्धी मद (ममता रागपूरितं ) ममता व रागसे भरा हुआ (अशुद्ध आलापं वाक्यं) मिथ्यावाद रूपी वचन ( मद्यदोष संगीयते ) मदिराका दोष कहा जाता है। विशेषार्थ-आठ मूलगुणों में पांच उदम्बर फलोंके सिवाय तीन प्रकार मदिरा, मांस व मधुमी हैं। यहां मदिरापानका निषेध करते हुए मदिरा सम्बन्धी दोष भी न लगानेकी प्रेरणा की गई है। मान कषायके तीन वेगसे मद चढ़ जाता है। धन मद, अधिकार मद, तप मद, विद्या मद, रूप मद, बल मद, कुल मद, जाति मद, यह मद भी मदिराके समान बाधा करनेवाला है। जैसे मदिराके नशेमें प्राणी कुछका कुछ बकता है वैसे इस तरहके मदमें भी यह धनादिकी ममता व रागके कारण मान पोषक मिथ्या बातें किया करता है। दूसरेका अपमान हो अपनी बड़ाई हो ऐसी बकपक करके अपना उन्मत्तपना प्रगट करता है। किसी प्रकारका भी नशा ग्रहण करना योग्य नहीं है। जिस किसी वस्तुके खाने पीनेसे व जिस किसी भावनाके भानेसे व जिस किसी क्रियाके करनेसे अपनी यथार्थ स्मृति, बुद्धि व प्रज्ञा व विवेक न रहे, सावधानी बिगड़ जावे उस सर्व खानपान, भावना व क्रियाका त्याग कर देना उचित है। भांग, चरस, गांजा, तम्बाकू आदि नशोंको भी नहीं पीना चाहिये । बाहरी सामग्रीके होते हुए अनित्य भावनाका विचार करते हुए उनके भीतर तीब्र ममत्व भाव न लाना चाहिये । शेखी मारनेकी आदत छोड देनी चाहिये। मानके वशीभूत हो अपनी आमदनी व खर्चका विचार न करके मर्यादासे अधिक विवाहादिमें खर्च करके उन्मत्त होकर अपना र झूठा मान पुष्ट नहीं करना चाहिये । आकुलताको बढ़ानेवाले कार्य विना सावधानीसे कर लेना यह सर्व उन्मत्त विचारका फल है। श्लोक-संधानं सन्मूर्छनं येन, त्यक्तंते ते विचक्षणाः । अनंतम शुद्धदृष्टितं ॥ २२९ ॥ अन्वयार्थ-(येन ) जिसमे ( संधानं ) संधानका दोष हो (सन्मूर्छन ) जहां सन्मूर्छन जंत पैदा हो उनको (त्यक्तंते) छोड देते हैं (ते विचक्षणाः) वे ही चतुर हैं (शद्धदृष्टितं ) शुद्ध सम्यग्दृष्टी (अनंतभावना दोष) अनंतानुबंधी कषायकी भावना सम्बन्धी दोषको नहीं लगाता है।
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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