________________
कारणवरण
४२३१।।
विशेषार्थ - अचार मुरब्बा आदि ताजा खाना चाहिये । मर्यादाके भीतरका भोजन छोडकर मर्यादाके बाहरका भोजन खाने में वह पदार्थ रस चलित हो जाता है इससे उसमें मदिराका अतीवार आता है । किस पदार्थकी क्या मर्यादा है यह कथन पहले किया जाचुका है। जिस किसीमें सम्मूर्छन त्रस जंतु पैदा होजावें वह सब पदार्थ मदिरा के दोषको रखनेवाला है ।
सागारधर्मामृत में मदिराके अतीचार में कहा है
संधानकं त्यजेत्सर्वं दषितकं द्वयोषितं । कांजिकं पुष्पितमपि मद्यव्रतमलोऽन्यथा ॥ ३-११ ॥
भावार्थ — सर्व प्रकारका संधान न खावे, दो दिनका दही छाछ न खावे, दहीके वडे कांजी न खावे, जिसपर फफूदी व फूल्ली आगई हो सो न खावे, यह सब महाव्रतके अतीचार हैं। वहीं लिखा हैजायंतेऽनन्तशो यत्र प्राणिनो रसकायिकाः । संधानानि न वरम्यंते तानि सर्वाणि भाक्तिकाः ॥
भावार्थ - जिस वस्तु रसके सम्बन्धी अनंत जंतु उत्पन्न होजावे उन सबको संघाना जानके जिन भक्त नहीं खाते हैं । सम्यग्दृष्टी जीव जिह्वाका लम्पटी नहीं होता है । इसलिये वह विवेकपूर्वक ही खानपान रखता है। शुद्ध भोजन करनेसे परिणाम निर्मल रहते हैं, आलस्य नहीं सताता है, रोग नहीं होते हैं, अनन्तानुबन्धी कषाय अन्याय व अभक्ष्य में प्रेरित कर देती है । सम्यग्दृष्टी के ऐसी कषायकी भावना नहीं होती है इससे वह विचारपूर्वक वर्तता है ।
श्लोक -मांस भक्ष्यते येन लोनी मुहुर्त गतस्तथा ।
न च भोक्तं न च उक्तं च व्यापारं न च क्रियते ॥ २३० ॥
अन्वयार्थ – (ये मांसं न भक्ष्यते ) जो कोई मांस नहीं खाते हैं ( तथा ) वैसे ही ( मुहूर्तं गतः लोनी ) दो घडी पीछे की लोनी ( न च भोक्तं ) नहीं खानी चाहिये । ( न च उक्तं) और न खानेको कहनी चाहिये ( व्यापारं न च क्रियते ) और न व्यापार ही करना चाहिये ।
विशेषार्थ - दूसरा मकार मांस है। मांसका भी त्याग भले प्रकार करना चाहिये । मांसके दोषों को भी बचाना चाहिये । लोनी मक्खनको दो घडीके भीतर गर्म करके घी बना लेना चाहिये । उसी घीको खाना चाहिये । व दूसरेको खानेको कहना चाहिये व उसी घीका व्यापार करना चाहिये। जो लोनीको दो घडीसे अधिक रख छोड़ा जायगा तो उसमें अन गिनती त्रस जंतु सम्मूर्छन
श्रावकाचार
॥ १३१ ॥