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धारणतरण ॥२२५॥
১में
हैं । उनके पास गुणस्थानकी परिपाटीके अनुसार बहुतसा कषायोंका दोष तो आता ही नहीं, जो कुछ आता भी है उसको वे सदा जीतनेका उद्यम रखते हैं। वास्तव में सम्यग्दृष्टी एक सिंहके समान है, वह बडा साहसी है, आत्मबली है। उसके पास आत्मज्ञानरूपी तेज बडा प्रतापशाली है उस तेजके सामने रागादि दोषरूपी हाथी आते हुए अवश्य कांपते हैं ।
श्लोक – सम्यक्तं शुद्ध पदं सार्थं, शुद्ध तत्व प्रकाशकं ।
ति अर्थ शुद्ध संपूर्ण, सम्यक्तं शाश्वतं पदं ॥ १२२ ॥ अन्वयार्थ—(सम्यक्तं सार्थ शुद्ध पदं ) सम्यग्दर्शन यथार्थ शुद्ध पर है (शुद्ध तत्व प्रकाशकं शुद्ध आत्मीक तत्वको प्रकाश करनेवाला है (ति अर्थ शुद्ध सम्पूर्ण ) शुद्ध तीनों भावोंसे पूर्ण है ( सम्यक्तं शाश्वतं पदं ) सम्यग्दर्शन ही अविनाशी स्वरूप है ।
विशेषार्थ - सम्यग्दर्शन निश्चयसे इस आत्माका एक शुद्ध निर्विकल्प गुण है । इसीके प्रतापसे शुद्ध आत्माका अनुभव होता है। जहां सम्पग्दर्शन उपयोगात्मक है वहां सम्यग्दर्शन, सम्य ज्ञान व सम्यक् चारित्र तीनों ही पूर्णताको लिये विराजमान रहते हैं अर्थात् जब शुद्ध निश्चयनयके बल से शुद्धात्मा की भावना करते शुद्ध आत्माका अनुभव किया जाता है तब वहां तीनोंकी पूर्णता ही स्वसंवेदन ज्ञानके बलसे अनुभवमें आती है । यथार्थ आत्मा परोक्षरूपसे जाना जाता है । केवलज्ञानकी अपेक्षा वह परोक्ष है परंतु स्वसंवेदन ज्ञानकी अपेक्षा प्रत्यक्ष है । सम्वग्दर्शन आत्माका एक अविनाशी गुण है । संसारी जीवोंके मिथ्यात्वके उदयसे ढक रहा है। जब मिथ्यास्वका अंधेरा हट जाता है तब यथार्थ प्रकाश होजाता है । सम्यग्दर्शनकी महिमा अपार है । आत्माको यही परमात्मा झलकानेवाला है । यही ध्यानकी अग्नि प्रकटानेवाला है । जिससे कर्मों के समूह भस्म होजाते हैं ।
श्लोक -यस्य हृदये सम्यक्तं, उदयं शाश्वतं स्थिरं ।
श्रावकाचार
99%
तस्य गुण शेष नाथस्य, आसक्तं गुण अनंतयं ॥ २२३ ॥
अन्वयार्थ - (यस्य हृदये ) जिसके अंतरंग में ( शाश्वतं स्थिरं सम्यक्तं उदयं ) अविनाशी निश्चल क्षायिक ॥। १२५ ।।