________________
बारणतरण
मिलाता है। उसीके प्रभाव से तीर्थका प्रचार होता है। वही मोक्षमें पहुंचा देता है । वहापैर भी यह निर्मल क्षायिक सम्यक्त सदाकाल बना रहता है। इसीके महात्म्यसे वहां भी सिद्धभगवान स्वोमानंदका भोग करते रहते हैं। रत्नकरंडमें कहा है
अमरासुरनरपतिभिर्यमधरपतिभिश्च नूतपादांभोनाः । ढष्ट्या सुनिश्चितार्था वृषचक्रधरा भवन्ति लोकशरण्याः ॥ ३९ ॥
भावार्थ -- सम्यग्दर्शन के प्रभाव से धर्मचक्र के धारी तीर्थकर होते हैं जिनके चरणकमलोंको इन्द्रादि, चक्रवर्ती व गणधरादि आचार्य नमन करते हैं, जिनको भले प्रकार पदार्थोंका निश्चय है व जिनकी शरण में तीन लोकके प्राणी आते हैं ।
श्लोक - सम्यक्तं यस्य
TUAZION
चितंति, वारं वारेन सार्थयं ।
दोषं तस्य न पश्यंते, सिंघ मातंग जूथयं ॥ २२१ ॥
अन्वयार्थ -(यस्य ) जो कोई ( सम्यक्तं ) सम्यग्दर्शनको (सार्थयं ) यथार्थ रूप से ( वारंवारेन) वारंवार (चिति) चितवन करते हैं ( तस्य दोषं न पश्यंते ) उसको दोष नहीं देखते हैं। जैसे ( मातंग जूथयं) हस्ती के झुंड (संघ) सिंहको नहीं देखते हैं ।
विशेषार्थ — जैसे सिंहका ऐसा प्रताप होता है कि उससे भय खाकर हाथियोंके समूह सिंहका सामना नहीं करते हैं, उसकी गर्जना सुनकर दूरसे ही भाग जाते हैं उसी तरह जिस भव्यजीवके अंतरंग में सम्यग्दर्शनका वारवार चितवन रहता है अर्थात जो अपने शुद्ध आत्मीक तत्वको सर्व अनात्मीक तत्वसे पृथक् करके एकाग्र मन हो अनुभव करते हैं उनके ऊपर रागद्वेषादि दोषोंका आक्रमण नहीं होता है। वे समताभाव में लीन रहते हैं। वे अपने आत्मीक धनके सिवाय किसी भी पर वस्तुको परमाणु मात्र भी अपनाते नहीं हैं। उनके भावोंमें अपने शुद्धात्माका मानो चित्रण होजाता है। उसके प्रेमके वे आसक्त होजाते हैं। वे कषायके मैलको मोहनीय कर्मका विकार समझते हैं । वे यही भावना करते हैं कि हमारे उपयोग में कषायका मैल न झलके तौही उत्तम है । यदि कदाचित् चारित्र मोहके उदयसे राग द्वेषका भाव आजाता है तो उससे भी उदासीन रहते हैं । दोषको दोष पहचानते रहते हैं। वे सदा जागृत रहते हैं। कभी भी मिथ्याज्ञानके धोखे में नहीं आते
श्रावकाचार
IIRRYKE