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वा रणवरण
॥३१९॥
८ - उत्तम त्याग - स्वयं संकल्प विकल्प त्यागकर निर्विकल्प रहना तथा अन्य प्राणियोंकी रक्षा करते हुए अभयदान देना व मिध्यात्वादिके मिटानेको सम्पज्ञानका उपदेश करना | दुःखी थके रोगी साधुओं की सेवा करके औषधि दान देना । क्षुधा तृषाकी बाधा होनेपर धर्मामृत पिलाकर तृप्त करना यही आहारदान देना ।
९- उत्तम आकिंचिन्य - इस जगतमें परमाणु मात्र भी अपना नहीं है, आत्माके गुण पर्याय ही मेरी आत्मा के हैं ऐसी भावना भाते हुए अंतरंग रागादि, बहिरंग क्षेत्रादि परिग्रहसे निर्ममत्व रहना । एक केवल स्वयं आपको ध्याना ।
१०- उत्तम ब्रह्मचर्य - निश्चयसे अपने ब्रह्म स्वभावमें थिर रहना, व्यवहार से मन, वचन, काय व कृतकारित अनुमोदना से स्त्री मात्र से व कामके विकारसे विरक्त रहना, शीलको ही आत्माका आभूषण समझना ।
ये दश धर्म व्यवहार से दश भेदरूप हैं, निश्चयसे सर्व एक आत्मारूप हैं। जहां आत्माकी थिरता आपमें हुई वहां क्रोधादि कषायोंका विकार न होनेसे क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच स्वयं होजाते हैं । सत्य पदार्थ एक आत्मा है उसमें थिरता एक उत्तम सत्य है । आत्मामें संयमरूप रहना संयम, उसीमें तपना तप है । अपनेको अतीन्द्रिय आनन्द देना त्याग । परसे ममत्व न होना आकिंचन्य व आपमें आपी जमना ब्रह्मचय है ।
इन १० धर्मोंका एक देश पालन गृहस्थ भी करते हैं । वे इन धर्मोंको इतना पालन करेंगे जिससे धर्म, अर्थ काम पुरुषार्थ साधे जासकें, नीति न बिगड़े, दुष्टोंका दमन हो, सज्जनोंकी रक्षा हो, जगतका उपकार हो, अन्यायका दमन हो, आप व पर सब सुखसे निराबाध जीवन विता सकें, पूर्ण साधन साधु ही कर सके हैं । यदि दुष्टोंपर क्षमा की जाय तो गृहस्थ व साधु दोनोंका धर्म नहीं चल सका इसलिये गृहस्थ यथावसर विवेक पूर्वक इनका साधन करते हैं ।
श्लोक - सार्द्ध चेतनाभावं आत्मधर्मं च एक यं ।
आचार्य उपाध्यायेन, धर्मं शुद्धं च धारिना ॥ ३३८ ॥
अन्वयार्थ ~(शुद्धं धर्मं च धारिना) शुद्ध निश्चय धर्मको पालनेवाले ( आचार्य उपाध्यायेन ) आचार्य व
श्रावकाचार
॥१३१.