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तारणतरण
१-उत्तम क्षमा-उत्कृष्ट क्षमा-दूसरों के द्वारा पीडित पवध व आक्रोषित किये जानेपर भी श्रावकाचार ॐ किंचित् भी क्रोधका विकार न पैदा करके पूर्ण क्षमा रखना । मात्र अपने कर्गदरको विचारना।
क्योंकि अप कर्मके उदय रिना कोई किसीको कष्ट नहीं देसका है। शांतभावसे कर्मनिरा विशेष होती है।
२-उत्तम मार्दव-विद्या, तप, वक्तापना, ध्यानादिमें अति प्रवीण होनेपर भी या अज्ञानियों से द्वारा अपमानित होनेपर भी किंचित भी मान भाव चित्तमें न लाकर परप कोमल भाव रखना, मान अपमान रूमता रखना तथा धर्म व धर्मधारियोंकी विनय करना । कोमल आत्मामें ही धर्म वृक्ष फलता है।
३-उत्तः आर्जव--अनेक कष्ट पडनेपर भी, भोजनका अलाभ होनेपर भी लोमके वश या मानके वश कभी भी कपट भाव चित्तमें न लाना, अपना दोष सरलनासे गुरुसे कहते हुए शुद्ध भाव रखना । माया चार रहित शुद्ध शास्त्रोक्त वर्तना वैसा ही वर्ताना । कुटिलतारूप मन, वचन, कायको कभी न वर्ताना।
४-उत्तम शौष-लोभ कषायको सर्व पापोंका मूल जानकर परम संतोषकी भावनासे मन को पवित्र रखना । पंचेन्द्रियके भोगोंकी कुछ भी कामना न करना । इष्ट व अनिष्ट संयोगमें समभाव रखना । आत्माकी पवित्रताका साधन करना।
५-उत्तम सत्य-स्वयं सत्य धर्मपर चलना, सत्य ही विचारना, सत्य ही उपदेश देना, सत्यको जीवनका सार समझना । निर्भय होकर सत्यका अनुयायी रहना । असत्यके मैलसे बचना।
६-उत्तम संयम-भलेप्रकार पांच इंद्रिय व मनके विकल्पोंको रोककर इंद्रिय संयम पालना। तथा पृथ्वी आदि छ: कायके प्राणियोंकी दया निमित्त उनकी रक्षा करना सो प्राणि संयम पालना। * आत्माको आत्मामें निरोध करना । मुनिके चारित्रको पथार्थ साधना ।
७-उत्तम तप--भलेप्रकार उपवास आदि बारह प्रकार तपका साधन करना । तपस्या करते हुए उपसर्ग व परीषह आजावे तो समतासे सहना । किंचित् भी क्षोभित न होना। निर्जन स्था. नोंपर जाकर तप करना । परमानन्दका स्वाद लेते हुए तप साधना ।