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अन्वया-(सम्यकं मादि गुण साई) सम्यग्दर्शन आदि गुणोंके धारी (मिथ्यात मळ विमुक्तयं) मिथ्यादर्शन रूपी मलसे रहित (गुणस्य संपूर्ण) सर्व आत्मीक गुणोंसे पूर्ण (भव्य लोकयं साध्य) भव्य जीवों के द्वारा साधने योग्य (सिद्ध) ऐसे सिद्ध होते हैं।
विशेपार्थ-सिरोंमें कर्मजनित कोई भी विभाव मिथ्यात्व आदि नहीं होता है क्योंकि सर्व कोसे रहित आत्माको ही सिद्ध कहते हैं, उनके सम्यग्दर्शन आदि अनंत गुण जितने आत्माके भीतर हैं ये सर्व पूर्णपने विकासको प्राप्त होजाते हैं, वे आदर्श परमात्मा हैं, निरन्तर आत्मीक आनन्दका स्वाद लेते रहते हैं, उनको ही ईश्वर, भगवान, परब्रह्म, परमेश्वर, निरंजन, चिदानंद प्रभु
आदि नामोंसे भव्य जीव ध्याते हैं। वे ही साधने योग्य हैं। तीर्थकर भी जबतक गृहस्थ व मुनि * अवस्थामें होते हैं उनही सिडका ध्यान करते हैं। हरएक मुमुक्षुको उन सिद्धोंके गुणोंका स्मरण 5 करके अपने आत्मांको मिड सम ध्याना चाहिये।
श्लोक-आचार्य आचरणं धर्म, ती अर्थ शुद्ध दर्शनं ।
उपाध्याया उपदेशंति, दशलक्षण धर्म ध्रुवं ॥ ३३७ ॥ अन्वयार्थ-(भाचार्य ती अर्थ धर्म शुद्ध दर्शनं आचरणं) आचार्य परमेष्ठी तीन अर्थरूप अर्थात रनत्रय स्वरूप धर्मका तथा मुख्यतासे शुद्ध सम्यग्दर्शनका आचरण आप करते हैं व कराते हैं ( उपाध्याया ध्रुवं दशलक्षण धर्म उपदेशंति ) उपाध्याय परमेष्ठी यथार्थ दशलक्षणमय धर्मका पाठ पढाते हैं।
विशेषार्थ-जो सम्यग्दर्शन, सम्बरज्ञान, सम्यक्चारित्र रत्नत्रयमय धर्मका व्यवहार नय तथा निश्चय नयसे स्वयं आचरण करते हैं व अन्य साधुओंसे आचरण करते हैं उनको आचार्य परमेष्ठी
कहते हैं। मुख्यतासे शुद्ध आत्मीक अनुभवका अभ्यास करते हैं जहां शुद्ध सम्यक्त गर्मित है तथा 4. इसी स्वात्मानुभवका अभ्यास कराते हैं क्योंकि यही निश्चय रत्नत्रयकी एकतारूप मोक्षका मार्ग है, यही काका विध्वंश करनेवाला है।
उपाध्याय परमेष्ठी उत्तम दशलक्षण धर्मको स्वयं पालन करते हुए उनहीकी शिक्षा अन्य साधुओं को देते हैं उनका काम पढानेका है।
वेदशलक्षण धर्म नीचेप्रकार हैं:
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