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नाशी आत्माका स्वभाव जय झलक जाता है तप तीर्थकर देव अपनी दिव्यध्वनिसे उपदेश देकर अनेक भव्य जीवोंका उद्धार करते हैं। उनके महान उपकारको स्मरण कर हमें श्री ऋषभादि महाचीर पर्यंत चौवीस तीर्थकरोंकी सच्चे भावसे भक्ति करनी योग्य है। ___ श्लोक-सिद्धं च शुद्ध सम्यक्तं, ज्ञान दर्शन दर्शितं ।
वीर्य सुहमं अव्याधि, अवगाहना गुरु लघू ॥ ३३५ ।। अन्वयार्थ (सिद्धं च शुद्ध सम्यक्त) सिद्ध भगवानके शुद्ध सम्यक्त होता है (ज्ञान दर्शन दर्शित) अनंत ज्ञान व अनंत दर्शन प्रगट होता है (वीर्य सुहम अव्याषि) अनंत वीर्य, सूक्ष्मपना, अव्यायाधपना. (अवगाहना गुरु लघू ) अवगाहना व अगुरुलघूपना ये आठ गुण प्रगट होजाते हैं।
विशेषार्य-सिद्धात्मा पूर्णात्माको कहते हैं । सर्व बाधक काँका अभाव होनेसे आत्माकी पूर्ण शक्तियें वहां प्रकाशमान होजाती हैं। उनमें गुण तो अनंत होते हैं परंतु यहां आठ कर्मों के नाशसे जो आठ गुण प्रकाशमान होते हैं उनका कथन किया गया है। मोहनीय कर्मके नाशसे शुद्ध सम्यग्दर्शन व स्वरूपाचरण चारित्र सहित प्रगट होजाता है। ज्ञानावरणीय कर्मके नाशसे अनंत ज्ञान व दर्शनावरणीय कर्मके नाशसे अनंत दर्शन प्रगट होजाता है जिससे वे सर्व द्रव्योंके गुण पर्यायोंको एक समयमें ही देखते व जानते हैं। अंतराय कर्मके नाशसे अनंत बल प्रगट होजाता है। जिससे उनको कभी भी आकुलता प निर्बलता किसी प्रकारकी नहीं होती है। वेदनीय कर्मके नाशसे अव्यावाधपना प्रगट होता है। अब कोई पर वस्तु उनके सुखके भोगमें बाधक नहीं रही है। गोत्र कर्मके नाशसे अगुरुलघु गुण प्रगट होगया है। उनमें अब यह कल्पना ही नहीं रही है कि हम गुरु हैं या लघु हैं, ऊंच हैं या नीच हैं, वे स्वयं समदर्शी हैं, परम साम्यभावमें लीन हैं, नामकर्मके नाशसे सूक्ष्मपना प्रगट होगया है, शरीरादि न रहनेसे वे सिद्ध भगवान इंद्रियगोचर नहीं हैं, ज्ञानगम्य हैं, आयुकर्मके नाशसे अवगाहना गुण प्रगट होगया है, जहां एक सिद्ध विराजते हैं वहां अन्य सिद्धोंको ठहरनेमें कोई बाधा नहीं होती है, सिद्धोंका ऐसा स्वरूप विचार करना चाहिये।
श्लोक-सम्यक्तं आदि गुण साई, मिथ्यात्व मल विमुक्तयं ।
सिद्धं गुणस्य संपूर्ण, साध्यं भव्य लोकयं ॥ ३३६ ॥
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