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भारमतरण
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५-संवेग-संसार शरीर भोगोंसे वैराग्य व धर्ममें अनुराग बहता रहे ऐसी भाषना करनी।
श्रावका ६-शक्तिस्त्याग-शक्तिके अनुसार माहार, अभय, भौषध य ज्ञान दान करता ऐसी . भावना करनी।
७-शक्तिस्तप-शक्तिके अनुसार बारह तप पालता रहूं ऐसी भावना करनी। ८-साधुसमाधि-साधुओंपर कोई उपसर्ग आवे तो उसको दूर करूँ ऐसी भावना करनी। ९-वैपावृत्यकरण-धर्मात्माओंकी सेवा करता रहूँ यह भावना करनी। १०-अईत भक्ति-ईतदेवकी भक्ति करता रहूं यह भावना। ११-आचार्य भक्ति-आचार्यकी भक्ति करता यह भावना। ११-बहुश्रुत भक्ति-उपाध्यायकी भक्ति करता रहूं यह भावना। ११-प्रवचन भक्ति-शास्त्रकी व धर्मकी भक्ति करता रहूं यह भावना। १४-आवश्यकापरिहाणि-नित्य भावश्यक धर्मक्रियाओंको नई पहभावना। १५-मार्ग प्रभावना-जिन धर्मकी उन्नति करता रहूं पह भावना। १५-प्रवचन वत्सलस्व-साधर्मियों से प्रेम रखता रहूं ऐसी भावना करनी।
क्योंकि इन भावनाओं में सर्व जीवोंके कल्याणकी भावना होती है इसीसे तीर्थंकर नामा कर्मका बंध होजाता है।
लोक-तस्यास्ति पोडशं भावं, तीर्थ तीर्थकरं कृतं ।
षोडशभाव भावेन, अरहंतं गुण शाश्वतं ॥ ३३४॥ मन्वयार्थ-(वस्य पोडशमा मस्ति) उसीके पोरश भावना यथार्थ भाई गई होती है जिसके (सी कृतं तीर्थकरं) तीर्थ जो धर्मरूपी जहाज उसको चलानेवाला तीर्थकर कर्मबंध होजावे (पोडशभाव भावेन ) सोलहकारण भावनाके मानेसे ( अरहंत गुण शाश्वतं ) अरहंत पद गुणमई व अविनाशी आरमाका स्वभाव प्रकट होता है।
विशेषार्थ-जिनके द्वारा सोलहकारण भावना सर्वही या कुछ वा एक भी परिपूर्ण भाई जाती है सीके तीर्थकर नामकर्म बंधता है। तीर्थकरके समान ऊँचा भरहंत पद दूसरा नहीं है। अवि
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