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लोक-अरहंत भावनं येन, षोडशभाव भावितं । ॥३२॥
ति अर्थ तीर्थकरं येन, प्रतिपूर्ण पंच दीतयं ॥ ३१३ ॥ मन्त्रया-(येन ) जिसने (पोडशभाव भावित) षोडशकारण भावना भाई तथा (परहेत भावनं ) भरांत पदकी भावना भाई है(बेन) वा (ति अर्य) तीन पदार्थ स्वरूप (सीकर) तीर्थकर (प्रतिपूर्ण पंच वाप्तवं) पूर्ण पांच ज्ञान होता है।
विशेषार्थ-भरत पदमें पचाप तीर्थकर व सामान्य केवली दोनों गर्मित तथापि तीर्थकरके पुण्यवंध विशेष होता है। उनकी इन्द्रादि देव भक्ति करते हैं। उनसे धर्मका प्रचार भी बहुत होता है।ऐसा तीर्थकर वही महान आत्मा होता है जो १६ कारण भावनाका दयसे विचार करता है। इन भावनाओं के मानेसेप केवली श्रुतकेवलीकी निकटतासे तीर्थकर मामकर्मका बंध होजाता है। तीर्थकरोंकी इन्द्रादि देव पंचकल्याणक रूप भक्ति करते हैं जो तीर्थकर नाम कर्म बांधे हुए उत्पन्न होते हैं। उनके गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान, निर्वाण पांचों कल्याणक होते हैं। जो खसी जन्ममें तीर्थकर नाम कर्म बांधकर तीर्थकर होते हैं खनके तप, ज्ञान, निर्वाण अथवा ज्ञान निर्वाण दो कल्याणक होते हैं। तीर्थकर सम्यक्ती, सम्यग्ज्ञानी, सम्पचारित्री होते हैं। तीनों पदार्थ जो रत्नत्रय है उनसे पूर्ण होते हैं। तीर्थकर नामकर्मकाध भी सम्यक्त होते हुए होता है। वास्तवमें तीर्थकर नाम कर्मका
सदय केवलज्ञान अवस्थामें होता है जहां पांचों ज्ञानोंकी पूर्णता या ज्ञानकी पूर्णता होजाती है। ये ११कारणभावना परमोपकार करनेवाली है। इनके भावनेसे पा इनपर चलनेसे पदि तीर्थकर नाम कर्मका पंधन भी हो तौभी महान पुण्यवंध होता है। वे भावनाएं नीचे प्रकार है
१-दर्शनविशुधिभावना-सम्यग्दर्शन शुरहे उसमें पचीसदोष न लगें ऐसी भावना करनी। २-विनयसम्पन्नता-रत्नत्रय धर्म व उनके धारकोंकी विनय करता रहूँ ऐसी भावना।
३-शीलमतेष्वनतीचार-शील स्वभाव व प्रतोंके पालनमें कोई दोष न लगे ऐसी भावना करनी।
४-अभीषण ज्ञानोपयोग-निरंतर भात्मज्ञान व शासनानके भीतर उपयोग लगा रहे पह भावना करनी।