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________________ धरणारण ४२३२॥ CL उपाध्यायके द्वारा ( चेतनाभावं सार्द्ध) चेतना भाव सहित ( एक ये च आत्मधर्मं ) एक ही आत्मधर्मकी भावना की जाती है । विशेषार्थ - यद्यपि व्यवहार नयसे भेद रूप धर्मको आचार्य व उपाध्याय परमेष्ठी साधन करते हैं, परन्तु निश्चयसे वे शुद्ध ज्ञान चेतनामई एक आत्मघर्म की ही आराधना करते हैं व कराते हैं। यदि किसी आचार्य व उपाध्यायका ध्यान मात्र व्यवहार धर्म के प्रवर्तने पर हो, निश्चयधर्मके चलानेपर न हो तो वे यथार्थ आचार्य व उपाध्याय परमेष्ठी नहीं होसके। वे परम गुरु जानते हैं कि साप जैसा होता है वैसा साधन होना चाहिये । साध्य शुद्ध आत्म-स्वरूप है तब उसका साधन भी शुद्ध आत्म-स्वरूपमें थिरता है। इसके सिवाय जो कुछ अन्य भेदरूप धर्माचरण है वह आत्मध्यानके लिये निमित्त मात्र है । इस तत्वको सदा सामने रखते हुए जिस तरह साध्यकी सिडि हो उसी तरह आप चलते हैं व अन्य शिष्योंको चलाते हैं । अन्तरंग धर्मको वृद्धि करनेपर ही इन दोनों परमेष्ठियों का ध्यान रहता है । कर्मकी निर्जराका मुख्य कारण शुद्धात्माका ध्यान है । आचार्य व उपाध्याय स्वयं जबतक अपने पदोंपर आरूढ हैं तबतक धर्मध्यानको ध्याय सक्ते हैं, परन्तु शुक्लध्यानको नहीं पास हैं। जब शुक्लध्यान करना होता है तब वे इन पदोंका त्यागकर साधु पदमें आजाते हैं । श्लोक - तत् धर्मं शुद्ध दृष्टी च, पूजितं च सदा बुधैः । उक्तं च जिनदेवेन, श्रूयते भव्यलोकयं ॥ ३३९॥ अन्वयार्थ – (तत् धर्म ) वह धर्म (शुद्धदृष्टी च ) शुद्ध आत्माका दर्शन ही है (सदा बुषैः च पूजितं ) यह धर्म सदा ही बुद्धिमानों द्वारा आदरणीय है ( जिनदेवेन उक्तं च ) जिनेन्द्रदेवने उसका उपदेश दिया ( भव्यलोकयं श्रूयते ) भव्य लोगोंने इसी धर्मका श्रवण किया है । विशेषार्थ - वह निश्चय धर्म एक शुद्ध आत्मीक अनुभव है, वचन व मनसे अगोचर है, आत्माका ही आत्मा में ही थिरता रूप है, इसीको चाहे शुद्ध सम्यग्दर्शन कहो, चाहे शुद्ध ज्ञान कहो, चाहे स्वरूपाचरण चारित्र कहो, चाहे संघम व तप कहो। इसी धर्मकी जगतमें गणधरादि द्वारा व संतों द्वारा पूजा की जाती है तथा जितने तीर्थंकर व अन्य सामान्य अईत् परमेष्ठी उपदेष्टा हुए हैं उन्होंने श्रावकाचार ॥१३२॥
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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