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________________ इसी परम धर्मका उपदेश दिया है इसीको सुनकर भव्य जीव आनन्दमें मगन होजाते हैं। प्रयोजन कहनेका यह है कि आचार्य परमेष्ठीका कर्तव्य है कि इसी धर्मका प्रचार करावें। पाध्यायोंका धर्म यह है कि इसी धर्मका पाठ पढावें। जहांतक आत्मज्ञान न होगा वहांतक अन्य अनेक शास्त्रोंका ज्ञान उपकारी न होगा, सर्व शास्त्रोंका सार अध्यात्म शास्त्र है, सर्व विद्याओं में श्रेष्ठ अध्यात्मविद्या है, सर्व कलाओंमें उत्तम आत्मानुभवकी कला है। इसीलिये जो इस कलाका प्रचार करते हैं ही सच्चे आचार्य व उपाध्याय हैं। श्लोक-साधओ साधुलोकेन, दर्शनं ज्ञानसंयुतं । चारित्रं आचरणं येन, उदयं अवश्य शुद्ध यं ।। ३४० ॥ अन्वयार्थ-(साधुलोकेन ) साधुओंके द्वारा (दर्शनं ज्ञान संयुतं साधनो) ज्ञान सहित सम्पग्दर्शनका साधन किया जाता है (येन चारित्रं आचरण) और जो सम्यक्चारित्रका आचरण करते हैं (अवश्य शुद्ध यं उदयं) तथा उनके अवश्य अर्थात् निर्विकल्प स्वावलम्बन रूप शुद्ध भावका भी प्रकाश होता है। . विशेषार्थ-अब साधु परमेष्ठीका विशेष स्वरूप कहते हैं। जो रत्नत्रयका साधन करे उसको साधु कहते हैं। उनमें मुख्यता ज्ञान सहित सम्यग्दर्शनकी है, उनको तत्वोंका यथार्थ ज्ञान होता है तथा दृढ विश्वास पदार्थोंका होता है। पांच महाव्रत, पांच समिति तथा तीन गुप्ति रूप तेरह प्रकार या अठाइस मूल गुण रूप चारित्र साधुजन भले भावसे पालते हैं। तथा शुद्ध आत्मीक भावका प्रकाश करते रहते हैं । यदि कोई साधु मात्र व्यवहार रत्नत्रय पाले और निश्चय रत्नत्रयमई शुखात्मानुभव न पावे तो वह साधु परमेष्ठी पूज्य नहीं है, वह मात्र द्रव्यलिंगी साधु-मिथ्यादृष्टी है। ॐ भावलिंग सहित ही द्रव्यलिंगकी शोभा है। भावलिंग विना द्रव्यलिंग केवल पुण्यवंधका कारण हैमोक्षका कारण नहीं है। श्लोक-ऊधं अधो मध्यं च, दृष्टि सम्यग्दर्शनं । ज्ञानमयं च संपूर्ण, आचरणं संयुतं ध्रुवं ॥ ३४१ ।। अन्वयार्थ (ऊर्ध अधो मध्यं च ) ऊर्धलोक, अधोलोक व मध्यलोक तीनों लोकों (सम्यग्दर्शनं दृष्टि)
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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