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करणवरण
३३४॥
सम्यग्दर्शनके द्वारा जो देखनेवाले हैं (संपूर्ण ज्ञानमयं च ध्रुवं आचरणं संयुतं ) व सम्पूर्ण ज्ञानमय निश्चल आचरण करनेवाले हैं वे साधु हैं ।
विशेषार्थ — सम्यग्दर्शन के प्रभावसे साधुजन तीनों लोकोंको यथार्थ देखते व श्रद्धान करते हैं। जब व्यवहार नयसे देखते हैं तो विचारते हैं कि अधोलोक नर्क में नारकियोंको महान कष्ट है । मध्यलोकमें मानव व तिर्येच अनेक मानसिक व शारीरिक कष्ट पारहे हैं व भवनवासी व्यन्तर ज्योतिषी तीन प्रकार देव तथा ऊर्ध्व लोकके कल्पवासी देव भी मानसिक दुःख से पीडित हैं । सर्व जीव तीन लोक में एकेंद्रिय से पंचेंद्रिय पर्यंत पर्यायों में जन्म ले लेकर मरते हैं । एक सिद्ध लोक ही सार है जहां सिद्ध भगवान जन्म जरा मरण रहित नित्य आनन्दमग्न रहते हैं । फिर निश्चय दृष्टिसे देखता है तो इस जगतको छः द्रव्योंका समुदाय जानकर हरएक द्रव्यका भिन्न १ स्वभाव विचारता है । अनन्तानन्त जीवोंको एकाकर शुद्ध ज्ञानदर्शनमय देखता है । परम समताभाव प्राप्त करता है, रागद्वेषको मिटा देता है। वीतरागताको पाकर आत्मध्यान में निश्चिन्त होजाता है । ज्ञानी साधु तत्वोंपर यथार्थ ज्ञान सहित विश्वास रखते हुए मात्र आत्म-शुद्धिके लिये व्यवहार आचरणको पालते हैं तथा निश्चय शुद्ध आचरण में आरूढ़ हो जाते हैं। जिनके मुख्य साधन आत्मध्यान है वे ही साधु हैं ।
श्लोक - साधु गुणस्य संपूर्ण, रत्नत्रयालंकृतं ।
भव्यलोकस्य जीवस्य रत्नत्रयं प्रपूजितं ॥ ३४२ ॥
अन्वयार्थ - (साधु) साधु परमेष्ठी ( गुणस्य संपूर्ण ) अट्ठाईस मूलगुणों से पूर्ण होते हैं (रत्नत्रयालंकृतं ) रत्नत्रय से शोभायमान होते हैं (भव्यलोकस्य जीवस्य ) भव्य लोक जीवोंके द्वारा ( रत्नत्रयं प्रपूजितं ) रत्नत्रय पूजने योग्य हैं ।
विशेषार्थ – साधुमें २८ मूलगुण पूर्ण होने चाहिये, वे इस प्रकार हैं
पांच महाव्रत अहिंसादि + पांच समिति ईर्या भाषा आदि + पांच इन्द्रियका दमन + छः आवश्यक - समता, वंदना, स्तुति, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग + केशलोंच + नग्नपना + स्नान त्याग + दंत धावन त्याग +खडे भोजन + एकवार भोजन + भूमि शयन = २८ ।
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