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शरणवरण
श्रावकाचार
तथा वे निश्चय घ व्यवहार रत्नत्र के साधक होते हैं। व्यवहार सम्यग्दर्शन निमित्त है जब कि निश्चय सम्यग्दर्शन साक्षात् मोक्षमार्ग है, व्यवहार सम्यग्ज्ञान निमित्त है जब कि निश्चय सम्प. रज्ञान साक्षात् मोक्षमार्ग है, व्यवहार सम्पचारित्र निमित्त है जब कि निश्चय सम्यकचारित्र साक्षात् मोक्षमार्ग है। तीनोंकी एकता मोक्षमार्ग है, पृथक् पृथक नहीं। जहां सुहात्मानुभवका अभ्यास है वहां स्वयं तीनोंकी एकता है। साघुओंके इसीका मुख्य साधन रहता है, क्योंकि साधु जन रत्नत्रयसे विभूषित होते हैं इसलिये भव्य जीव उनकी पूजा करते हैं, उनके गुणोंका स्मरण करते हैं, उनको दान देते हैं, उनसे धर्मोपदेश लेकर स्वयं उसपर चलते हैं।
श्लोक-देवं गुरुं पूज साधं च, अंग सम्यक्त शुद्धये ।
साध ग्यानमय शुद्ध, सम्यग्दर्शनमुत्तम ॥ ३४३ ॥ अन्वयार्थ- (देवं गुरुं अंग साधं च पून) देव, गुरु और शास्त्रकी पूजा (सम्यक्त शुद्धये) सम्यग्दर्शनकी शुद्धिके लिये कर्तव्य है (ज्ञानमयं शुद्ध सार्थ) साथ में ज्ञान स्वरूप शुद्ध आत्माका अनुभव करना (उत्तम सम्यग्दर्शनं ) उत्तम सम्यग्दर्शन है।
विशेषार्थ-यहां यह उपदेश दिया है कि पांच परमेष्ठी जैसे पूज्य है वैसे उनकी अंग पूर्वरूप पाणी भी पूज्य है। देवमें अरईत सिद्ध.गुरुमें आचार्य, उपाध्याय, साधु गर्भित हैं। देव शास्त्र गुरुकी पूजा निश्चय सम्यक्तकी प्राप्तिके लिये तथा यदि निश्चय सम्यक्त हो तो उसकी दृढ़ता व शुद्धिके लिये निरन्तर करना योग्य है । भक्ति करनेसे मनपर उनके पवित्र गुणोंके स्मरणका प्रभाव पड़ता है। जिससे परिणामों में कषायकी मंदता होती है। एक वस्तु आतापमय होरही है, उष्णतामें जाज्वल्यमान है, उसको पुनः पुनः शांत जल में डुबानेसे उसका आताप धोरे २ शमन होजाता है। उसी तरह हम संसारी जीव भरकी आतापसे शंतापित हैं, विषय कषायके दोषसे दूषित हैं तब हमें उचित है कि हम अपनेको परम वीतराग देव शास्त्र गुरुकी भक्ति में डुबावें। उनकी शांति हमारे भवातापको शांत करने में व उनका विषय-कषायोंसे वैराग्यमय बनाने में निमित्त पडेगा, इसलिये नित्य व्रती श्रावकको देव शास्त्र गुरुकी पूजा करनी योग्य है, भलेप्रकार भाव लगाकर करनी योग्य है, जिसमें पूज्यमें पूजकका भाव लवलीन होजावे। इससे अनंतानुबन्धी कषाय व मिथ्यात्वको