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________________ मो.मा. ऐसे ही इहाँ प्रकाश ऐसे ही इहां भी रागद्वेषकी परंपरा प्रवहै । इहां प्रश्न-जो अन्यपदार्थनिविष तौ रागद्वेष । करनेका प्रयोजन जान्या परंतु प्रथम तौ मूलभूत शरीरकी अवस्थाविषे वा शरीरकी अवस्थाकों कारण नाही तिन पदार्थनिविषै इष्ट अनिष्ट माननेका प्रयोजन कहा है ? ताका समाधान, जो प्रथम मूलभूत शरीरकी अवस्था आदिक हैं तिनिविषै भी प्रयोजन विचारि राग करै है तो मिथ्याचारित्र काहेको नाम पावै । तिनिवि विना ही प्रयोजन रागद्वेष करै है । अर | तिनिहीके अर्थ अन्यसौं रागद्वेष करै ताते सर्व रागद्वेषपरिणतिका नाम मिथ्याचारित्र कह्या है। इहां प्रश्न-जो शरीरकी अवस्था वा बाह्यपदार्थनिविणे इष्ट अनिष्ट माननेका प्रयोजन तो | भासे नाहीं अर इष्ट अनिष्ट मानेविना रह्या जाता नाहीं, सो कारण कहा है। ताका समाधान, इस जीवकै चारित्रमोहका उदयते रागद्वेष भाव होय सो ए भाव कोई पदार्थका आश्रयविना होय सकें नाहीं । जैसे राग होय सो कोई पदार्थविणे होय । द्वेष होय सो कोई | पदार्थविष ही होय । ऐसें तिनिपदार्थनिकै अर रागद्वेषके निमित्तनैमित्तिक संबन्ध है । तहां विशेष इतना जो केई पदार्थ तो मुख्यपनै रागौं कारन हैं। केई पदार्थ मुख्यपनै द्वेषकों कारण हैं। केई | पदार्थ काहूकों काहूकालविषैरागके कारन हो हैं काहुकों काहूकालविषै द्वेषके कारण हो हैं। इहां इतना जानना,-एक कार्य होनैविषे अनेक कारण चाहिएसोरागादिक होनैविषअंतरंग कारण मोहका उदय
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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