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________________ 500 मो.मा. प्रकाश . GoBOHEco@oozcoopcropicfooERMOOccoodaevokpcoocc0000-00-456fook3Cookiefookccoot00000426/o0 मग्न हैं, तिनकौं अात्मश्रन्द्रानादि करावनेकों “देहविर्षे देव है, देहुरावि नाहीं” इत्यादि उ. |पदेश दीजिए है। तहां ऐसा न जानि लेना, जो भक्ति छुड़ाय भोजनादिकतै आपको सुखी करना । जाते तिस उपदेशका प्रयोजन ऐसा नाहीं है। ऐसे हो अन्य व्यवहारका निषेध । तहां किया होय, ताकौं जानि प्रमादी न होना । ऐसा जानना,-जे केवल व्यवहारविषै ही , | मग्न हैं, तिनकों निश्चयरुचि करावनेकै अर्थ व्यवहारकों हीन दिखाया है। बहुरि तिन ही। |शास्त्रनिविषै सम्यग्दृष्टीके विषय भोगादिककों बंधकारण न कह्या, निर्जराका कारण कह्या। सो यहां भोगनिका उपादेयपना न जानि लेना। तहां सम्यादृष्टीकी महिमा दिखाबनेकौं जे तीब्रबंधके कारण भोगादिक प्रसिद्ध थे, तिन भोगादिकौं होतसत भी श्रद्धानशक्तिके | बलते मंदबंध होने लगा, ताकौं तो गिन्या नाहीं अर तिसही वलतै निर्जरा विशेष होने | लगी, तातै उपचारतै भोगनिकों भी बंधका कारण न कह्या, निर्जराका कारण कह्या । विचार किए भोग निर्जराके कारण होय, तौ तिनकौं छोड़ि सम्यग्दृष्टी मुनिपदका ग्रहण, काहेकौं करै । यहां इस कथनका इतना ही प्रयोजन है-देखो, सम्यत्वकी महिमा जाके बलतै भोग भी अपने गुणकौं न करि सके हैं । या प्रकार और भी कथन होय, तौ ताका यथार्थपना जानि लेना । बहुरि द्रव्यानुयोगविषे भी चरणानुयोगवत् ग्रहण त्याग करवानेका प्रयोजन है । तातें छद्मस्थके बुद्धिगोचर परिणामनिकी अपेक्षा ही तहां कथन कीजिए है। ४३५ nagopcorporaROPORoopcoomce-crop
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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