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________________ मो.मा. प्रकाश शक्तिकी महिमा है । बहुरि मनकरि किछू अतीत अनागतों अव्यक्तकों जान्या चाहै था अब सर्व ही अनादितें अनन्तकालपर्यन्त जे सर्व पदार्थनिके द्रव्यक्षेत्र काल भाव तिनिकौं युगपत् || जाने है। कोऊ विना जान्या रह्या नाहीं जाके जानने की इच्छा उपजै । ऐसें इन दुख और । दुखनिके कारण तिनिका अभाव जानना । बहुरि मोहके उदयतें मिथ्यात्व वा कषायभाव होते थे तिनिका सर्वथा अभाव भया तातै दुखका अभाव भया । बहुरि इनिके कारणनिका अभाव । | तातै दुखके कारणका भी अभाव भया । सो कारणका प्रभाव दिखाइए है सर्व तस्व यथार्थ प्रतिभासें अतत्त्वश्रद्धानरूप मिथ्यात्व कैसे होइ । कोऊ अनिष्ट रह्या || | नाहीं निंदक स्वयमेव अनिष्ट पावै ही हैं आप क्रोध कौनसों करे ? सिद्धनित ऊंचा कोई है। नाहीं इन्द्रादिक मापहीते नमै हैं इष्ट पावें हैं कौनस्यों मान करे ? सर्व भवितव्य भास गया | कार्य रक्षा नाही काहस्यों प्रयोजन रह्या नाहीं काहेका लोभ करै ? कोऊ अन्य इष्ट रह्या नाहीं। | कौन कारनते हास्य होइ ? कोऊ अन्य इष्ट प्रीतिकरने योग्य है नाहीं। इहां कहा रति करै ? | कोऊ दुखदायक संयोग रह्या नाहीं, कहां परति करे ? कोऊ इष्टअनिष्ट संयोगवियोग होता नाहीं, काहेकौं शोक करै ? कोऊ अनिष्ट करनेवाला कारन रह्या नाहीं, कौनका भय करे ? सर्व वस्तु अपने खभाव लिए भासे आपको अनिष्ट नाहीं कहां जुगुप्सा करे ? कामपीड़ा दूर | होनेते स्त्रीपुरुष उभयस्यों रमनेका किछू प्रयोजन रह्या नाही, काहेकों पुरुष स्त्री नपुन्सकवेद ।। । १०६
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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