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वारणतरण
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श्लोक – संसारे तारने चिंते, भव्यलोकैक तारकः ।
धर्मस्य अप्पसद्भावं, प्रोतितं जिनउक्तितं ॥ ६९ ॥
अन्वयार्थ - ( भव्य शेकैक तारकः ) भव्य जीवोंके एक मात्र अद्वितीय उपकारी संसार तारक गुरु ( संसार तारने) संसारी प्राणियोंको तारनेका उपाय ( चिंते) विचारते रहते हैं व (नि उक्तितं) श्रीजिनेंद्र भगवानने जैसा कहा है वैसा ( अप्पसदभावं ) आत्माका शुद्ध स्वभावरूप ( धर्मस्य ) धर्मका ( प्रोक्तितं ) विशेष व्याख्यान करते हैं।
विशेषार्थ —- यहां पर भी सच्चे गुरुका स्वरूप बताया है। सच्चे गुरु भव्यजीवोंको सच्चा मार्ग बतानेवाले जहाजके समान होते हैं। जैसे जहाज आप तरता है तथा दूसरोंको तारता है वैसे ही आत्मज्ञानी गुरु तरन तारन होते हैं। वे दया बुद्धि लाकर जब शुभोपयोग में होते हैं तब यही विचारते रहते हैं कि ये संसारके प्राणी संसार में मग्न होते हुए रात दिन दुःख उठा रहे हैं। जन्म मरण, जरा, रोग, शोक, वियोगसे व तृष्णाकी महान ज्वालासे पीड़ित हैं, उनका उद्धार कैसे हो । उन्होंने मिथ्यात्वरूपी मदिरा पी रक्खी है इससे उन्मत्त होकर आत्मा के बोधसे विमुख है । क्षणभंगुर जगतकी मायामें मोहित हुए मच्चे सुखका भोग नहीं पारहे हैं । आकुलता व चिंतासे तड़क रहे हैं । इनको किसतरह सम्यग्दर्शन रूपी औषधि पिलाई जाने जिससे इनकी मूर्छा दूर हो जाये । जब कभी ऐसे गुरु अवसर पाते हैं, व्यवहारधर्म के साथ साथ निश्चय धर्मका भी उपदेश करते हैं क्योंकि विना निश्चयको जाने कभी भी आत्माके शुद्ध स्वरूपका बोध नहीं होसक और बोध हुए विना सम्यक्त प्रगट नहीं होसक्का । परंतु वे श्रीगुरु श्री अईत भगवानके उपदेश के परम श्रद्धावान हैं । जैसा उन्होंने आत्माका सच्चा स्वरूप बताया है उसी तरह वे श्रीगुरु आत्माका शुद्ध स्वरूप भव्य जीवोंको समझाते हैं । अर्थात् यथार्थ धर्म बताते हैं । व्यवहारधर्म मात्र निश्चय धर्मकी प्राप्ति के 3 लिये निमित्त कारण है । धर्म तो वास्तवमें आत्माका स्वभाव है और वह अभेद रत्नत्रय स्वरूप शुद्धोपयोग है, आत्मानुभव है, ज्ञानानंदका भोग है, सहज समाधि है, मन व वचनके अगोवर एक स्वसंवेदन ज्ञान है ।
श्रावकाचार
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