________________
श्रावकाचार
पारणतरणनेको भाग्यवान समझता है। धिक्कार हो ऐसे जाति व कुल मदको जो जीवनकी मोह पामिमें ॥१५॥ ॐफंसाकर आत्तकार्यसे विमुख कर देते हैं।
श्लोक-रूपं अधिकारं दृष्ट्रा, रागं वर्धन्ति ये नराः ।
ते अज्ञानमये मूढाः, संसारे दुःखदारुणं ॥ १४७ ॥ अन्वयार्थ-(रूपं) सुन्दर रूपको तथा (अधिकार) अपने अधिकारको (दृष्ट्वा ) देखकर (ये नराः) * जो मानव (रागं) रागको (वर्धन्ति) बढा लेते हैं। (ते) वे ( अज्ञानमये ) अज्ञानमई पदार्थ में या भावमें (मूढा) मूर्छित होते हुए (संसारे) इस संसारमें (दुःखदारुणं) भयानक दुःखको उठाते हैं।
विशेषार्थ-मोही प्राणी अपने शरीरका सुन्दर रूप देखकर बडा ही राग बढा लेते हैं। रागके साथ अहंकार भी बढ़ा लेते हैं। वे इस बातको भूल जाते हैं कि जिस शरीरकी ऊपरकी चमड़ी सुन्दर देखकर व आंख नाक मुखका आकार सुडौल देखकर राग या अहंकार किया जाता है वह शरीर तो महान अपवित्र घृणाके योग्य व क्षणभंगुर है। भीतर इसके कृमिकुल, राध आदि भरा है। यदि चमड़ीको अलग कर दिया जाय तो मक्खियोंसे भिनभिनाने लगेगा व अपनेसे भी अपना शरीर देखा नहीं जायगा। जिसके नव द्वारोंसे निरंतर मल बहता है, जो शरीर अचानक भूख प्यासकी अधिक बाधा होनेमे व रोगादि आनेसे व जरा आजानेसे बिगड जाता है-सुरूपसे कुरूप होजाता है, ऐसे मायाजालके समान अथिर रूपका राग करना व अहंकार करना मात्र मिथ्याज्ञान व मूर्खता है।
इसी तरह यदि उसका किसी कारणसे अधिकार है उसकी आज्ञा चलती है वह राजा, V महाराजा, मंत्री, प्रधान, कोटवाल, नगरसेठ, चौधरी, हाकिम, जज, मजिष्ट्रेट है तो उसको बड़ा ॐ अहंकार होजाता है। वह मदमें कठोर परिणाम रखता है। कठोर वाणीसे छोटोंके साथ व्यवहार करता है। अपने आधीनों के सुखका, शरीर स्वास्थ्यका ख्याल छोडके उसको अपनी मनमानी आज्ञामें चलाकर उनसे खूब काम लेता है, कहीं वे भूलसे कुछ काम बिगाड़ देते हैं तो विना सोचे समझे क्रोध कर लेता है, मार बैठता है, व दंडित कर देता है, नम्रता व मिष्टवादिता व विनयरूप
॥१५॥