SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 422
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वारणतरण श्रावकाचार ॥५०॥ RECErect&tke&EEKEN गतितियावरात्रिमालाबालारा विशेषार्थ-यहां ग्रंथकारने छठी प्रतिमाका नाम अनुराग भक्ति लिया है। किनही आचार्योंने दिवा मैथुन त्याग लिया है। प्राचीन आचार्योंने रात्रि मुक्ति त्याग लिया है। कारण यही है कि रात्रिको भोजन त्याग ग्रंथकर्ताके मतमें पहली प्रतिमामें या उससे पहले ही होजाता है तब यहांपर रखना उनके परिणामोंमें ठीक नहीं दीखा होगा, इससे इसका नाम अनुराग भक्ति रख करके कहा है। जहां शुद्ध आत्मीक तत्वका अनुराग विशेष बढ जावे, संसारके कर्मों में राग द्वेष षहुन घट जावे, स्व स्त्री प्रसंग भी न सुहावे, गृहस्थके कार्योंसे बहुत उदासीनता आजावे, सिवाय शुद्ध आत्मीक तत्वकी प्राप्तिके और बात सब असत्य दीखती हो, संसारसे वैराग्य बढ गया हो, मोक्षमें तीन भक्ति होगई हो वह अनुराग भक्ति प्रतिमा है। श्री समन्तभद्राचार्यने रात्रि मुक्ति त्याग छठी प्रतिमाका स्वरूप ऐसा कहा हैअन्नं पानं खाद्यं लेह्य नानाति यो विभावर्याम् । स च रात्रिमुक्तिविरतः सत्तेष्वनुकम्पमानमनाः ॥ १४२॥ भावार्थ-जो सर्व माणियोंके ऊपर दयाभावको रखनेवाला रात्रिको अन्न, पान, खाद्य व लेह्य (चाटने योग्य) ऐसे चारों प्रकारके सर्व आहारको नहीं खाता है वह रात्रि-भोजन त्यागी श्रावक है। यहांपर भाव यही है कि इस श्रेणी में गृहस्थके ऐसी उदासी आजाती है कि वह रात्रिको न तो स्वयं खाता है न खिलाता है न भोजन सम्बन्धी आरम्भ क्रिया करता व कराता है न वार्तालाप करता है। भोजनके सर्व विचारोंसे छुटकर अधिकतर धर्मध्यानमें रक्त रहता है। इसके पहले यथाशक्ति रात्रि-भाजनका त्याग था। यहांपर अतीचार रहित पूर्ण त्याग होजाता है। इसके पहले रात्रिको यदि स्वयं न खाता था तौभी दूसरोंको खिलाता था। सम्यक्ती दयावान होता है। अविरत सम्यक्ती भी रात्रिको खाना पसन्द नहीं करता है। यदि उससे बने तो वह दिन हीमें खाता है, परन्तु गृहस्थी अनेक प्रकारके व्यवसायवाले होते हैं, किसीको कामसे छुट्टी ही न मिल सके, दूर जाता आता होव और लाचारी हो इससे आचार्याने छठी प्रतिमासे पहले अभ्यास बताया है जितना शक्य हो उतना छोडे, छठी प्रतिमामें पूर्ण त्याग होना ही चाहिये। सम्यग्दृष्टी श्रावक अपनी शक्तिके अनुसार जीवदयाको पालता हुआ रात्रि भोजन पहले भी नहीं करेगा परंतु यदि कोईके कोई लाचारी हो तो और व्रतों व प्रतिमाओंको पालता हुआ रहकर वह रात्रि भोजनका पूर्ण त्यागी छठी श्रेणीमें होगा। ऐसा अभिप्राय आचार्योका दिखता है। ॥४.41
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy