________________
वारणतरण
॥६६॥
श्रावकाचार श्लोक-अनृतं तु सत्य मानंते, विनाशं यत्र जायते ।
ते नरा थावरं दु:खं, इन्द्रियाधीन भाजनं ।। ६३ ॥ अन्वयार्थ-(यत्र ) जहां (विनाशं ) नाश (जायते) होता है एसे (अनृतं तु) मिथ्याको ही जो (सत्य) ॐ सच (मानते) मान बैठते हैं (ते नरा) वे मानव (थावरं ) स्थावरकाय मम्बन्धी (इन्द्रियाधीन) एक स्पर्श-४ नेन्द्रियके आधीन ( दुःखं ) क्लेशोंके (भाजनं ) पात्र होते हैं।
विशेषार्थ-मिथ्याको सच मान लेना पड़ा भारी अज्ञान है। इससे प्राणीका नाश होता है। यदि कोई रज्जूको सर्प माने तो वृथा भयभीत हो दुःख उठावे। जो संसारिक क्षणिक सुखको सुख, माने वे भी अज्ञानसे दुःख उठावे, जो मिथ्यादवोंको, कुदेवोंको तथा अदेवाको देव माने उनका इस जन्ममें भी नाश होगा, वे धर्मसे वंचित रहेंगे तथा परलोकमें दुतिके महान दुःख प्राप्त होंगे। क्योंकि अज्ञानकी सेवा अज्ञानरूप ही फलती है। इसलिये ऐसे अज्ञानी मिथ्यादृष्टी एकेंद्रिय जाति नामा कर्म बांधकर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति ऐसी एकोन्द्रिय स्थावर पर्यायमें चले जाते हैं जहां, * स्पर्शनेन्द्रियके विषयके आधीन रहते हुए अत्यन्त पराधीन रहते हैं। चलने फिरनेकी शक्ति न होनेसे
वे शरदी गरमी, तेज पवन, पाला, वर्षा आदिके निमित्त मिलनेपर बहुत वेदनाको पाते ह । वृक्षाको. ४ कोई काटता है, छीलता है, नोचता है। उनको परकृत घोर वेदना सहनी पड़ती है, वे मूक हैं
अपने दुःखको कह नहीं सके। घोर अज्ञानमें जीवन विताते हैं। मिथ्यात्वकी तीव्रतासे ऐसे निमित्त में पहुंच जाते हैं कि स्थावर कायसे त्रस होना, देन्द्रियादिसे पंचेन्द्रिय होना, पंचेंद्रियसे मानव होना अत्यन्त दुर्लभ है। अतएव जो स्थावरोंके कष्टोंमें आत्माको नहीं डालना चाहते हैं उनको भूलकर
भी अदेवोंकी भक्ति नहीं करनी चाहिये । न कुदेवोंकी भक्तिसे रागद्वेषको बढ़ाना चाहिये । जो र संसारके भीतर रहते हुए साताकारी सम्बन्ध चाहते हैं उनको उचित है कि सर्वज्ञ वीतराग भगवानको छोड़कर अन्य किसी कुदेव या अदेवकी उपासना या भक्ति न करें।
श्लोक-मिथ्यादेवं अदेवं व, मिथ्यादृष्टी च मानते। मिथ्यात्वी मूढदष्टिश्च, पतितं संसार भाननं ॥ ६४ ॥
॥६ ॥