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अन्वयाम
कारणतरण ॥ ७॥
अन्वयार्थ-(मिथ्यादृष्टी च) मिथ्यादृष्टी बहिरात्मा हा (मिथ्यादेव) रागीबेषी कुदेवोंको (च) और ( अ ) अदेवोंको (मानते ) मानता है। (मिथ्यात्वी) मिथ्यादृष्टी (मूढदृष्टिश्च ) मूढताके भावों में फंसा हुआ (संसारभाजनं ) संसाररूपी कूपमें (पतितं) पड़ा रहता है।
विशेषार्थ-अनंत संसारके भ्रमणका कारण मिथ्यात्व है। जो संसारमें आसक्त है वही संसारमें भ्रमण करता है। जो शरीरका रागी है, विषय भोगोंका लोलुपी है वह रात दिन विषयकी तृष्णामें फंसा हुआ विषय सामग्री मिलने पर हर्ष व वियोगपर विषाद किया करता है। वह इंद्रिय सुखको ही अमृत समझता है। जैसे मृग मृगतृष्णामें चमकती हुई रेतको भ्रमसे जल समझकर आकुल व्याकुल होता है, प्यास बुझानेके स्थानपर अधिक बढ़ा लेता है ऐसे ही यह मूढ प्राणी आत्माधीन अतीन्द्रिय सुखको न पहचानकर इंद्रिय सुखोंमें तन्मय होता हुआ दुःख भोगता ४ हुआ तृष्णाकी दाह बढ़ा लेता है। यह मूर्ख प्राणी दुःख व आकुलता व बंधके कारण इंद्रिय सुखको सुख मानकर उसीके कारण नाना प्रकार उपाय करता है। बहुतसे मिथ्या उपाय भी करता है। उन ही मिथ्या उपायोंमें कुदेवोंका व अदेवोंका पूजन है। इस भक्तिमें अपनी शक्तिको व अपने धनको वृथा खोता है और बहुत पाप संचय करता है । नर्क निगोद, पशुगतिमें व दीन हीन मनुष्य गतिमें व कांति हीन छोटे देवों में पैदा हो अनेक शारीरिक और मानसिक दुःख उठाता है। जैसे अंधकूपमें गिर जानेसे निकलना बडा कठिन है वैसे भयानक ससारमें पतन होनेसे इससे निकलनेका साधन जो सम्यग्दर्शन है उसका पाना कठिन है, ऐसा जानकर कुदेवॉकी व अदेवोंकी भक्ति कभी नहीं करनी चाहिये।
श्लोक-सम्यक्गुरु उपासते, सम्यक्तं शाश्वतं ध्रुवं ।
लोकालोकं च तत्वार्थ, लोकितं लोकलोकितं ॥ ६५ ॥ अन्वयार्थ-ऊपर मिथ्यादेवोंका स्वरूप बताकर सचे देव श्री अरहंत सिद्ध भगवानकी भक्ति
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