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________________ मो.मा. प्रकाश | उदय बाह्य सामग्री मिले है तिनिविषे शरीरादिक तो जीवके प्रदेशनिसों एक क्षेत्रावगाही | । होयं एकबंधानरूप ही हो हैं । अर धन कुटुम्बादिक आत्माते भिन्नरूपहें सो ए सर्व बंधके कारन नाहीं हैं जाते परद्रव्य बंधका कारन न होय । इनिविषै आत्माकै ममत्वादिरूप मिथ्यास्वादिभाव हो हैं सो इसका कारन जानना । बहुरि इतना जानना जो नामकर्मके उदयतें | शरीर वा वचन वा मन निपजे हैं तिनिकी चेष्टाके निमित्त आत्माके प्रदेशनिका चंचलपना हो है । ताकरि आत्माकै पुद्गलवर्गणासों एक बंधान होनेकी शक्ति हो है ताका नाम योग है। साके निमित्ततें समय-समय प्रति कर्मरूप होनेयोग्य अनंत परमाणनिका ग्रहण हो है। तहां | अल्पयोग होय तो थोरे परमाणनिका ग्रहण होय, बहुत योग होय तो घनें परमाणनिका ग्रहण | होय । बहुरि एक समय जे पुद्गलपरमाण आहे तिनिविष ज्ञानावरणादि मूलप्रकृति वा तिनिकी | उत्तर प्रकृतीनिका जैसे सिद्धान्तविषै कह्या है तैसें बटवारा हो है तिस बटवारा माफिक परमाण तिनि प्रकृतीनिरूप आप हो परिणमै हैं। विशेष इतना कि योग दोय प्रकार है शुभयोग | अशुभयोग । तहां धर्मके अंगनिविष मनवचनकायकी प्रवृत्ति भए तौ शुभयोग हो है अर | अधर्म अंगनिविषै तिनिकी प्रवृत्ति भए अशुभयोग हो है। सो शुभयोग होहु वा अशुभयोग | होहु सम्यक्त्व पाए बिना घातियाकर्मनिका तौ सर्व प्रकृतीनिका निरन्तर बंध हुआ ही करै है। कोई समय किसी भी प्रकृतीका बंध हुआ बिना रहता नाहीं । इतना विशेष है जो मोहनीयको
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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