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मो.मा भावका अंश है मेघपटलजनित नाही है । तैसें जीवका ज्ञान दर्शन वीर्य स्वभाव है सो ज्ञानाप्रकाश | | वरण दर्शनावरण अन्तरायके निमित्ततें जितने व्यक्त नाही तितनेंका तो तिसकालविर्षे अ-
भाव है । बहुरि तिन कर्मनिका क्षयोपशमते जेता ज्ञान दर्शन वीर्य प्रगट है सो तिस जीवके । । स्वभावका अंश ही है कर्मजनित उपाधिक भाव नाहीं है । सो ऐसे स्वभावके अंशका अनादितें ।
लगाय, कबहूँ अभाव न हो है । याहीकरि जीवका जीवत्वपना निश्चय कीजिए है। जो यह । देखनहार जाननहार शक्तिकों धरें वस्तु है सो ही आत्मा है। बहुरि इस स्वभावकरि नवीन
कर्मका बंध नाहीं है जातें निज स्वभाव हो बंधका कारन होय तो बंधका छूटभा कैसे होय ।। | बहुरि तिन कर्मनिके उदयते जेता ज्ञान दर्शन वीर्य अभावरूप है ताकरि भी बंध नाहीं है
जातें आपहीका अभाव होते अन्यकों कारन कैसे होय । तातें ज्ञानावरण दर्शनावरण अंतराय A के निमित्त उपजे भाव नवीनकर्मबंधके कारन नाहीं । बहुरि मोहनीय कर्मकरि जीवकै अय
थार्थश्रद्धानरूप तो मिथ्यात्वभाव हो है वा क्रोध मान माया लोभादिक कषाय हो हैं ते । यद्यपि जीवके अस्तित्वमय हैं जीवतें जुदे नाहीं, जीव ही इनिका कर्ता है जीवके परिणमनरूप
ही ये कार्य में तथापि इनिका होना मोहकर्मके निमित्ततें ही है कर्मनिमिस दूरि भए इनिका अभाव ही है तातें ए जीवके निजस्वभाव नाही उपाधिकभाव हैं। बहुरि इनि भावनिकरि नवीनबंध हो है तातें मोहके उदयतें निपजे भाव बंधके कारन हैं। बहुरि अघातिकर्मनिके