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मो.मा. प्रकाश
जो कर्म आप कर्त्ता होय उद्यमकरि जीवके स्वभावकों घातै बाह्य सामग्रीकों मिलावै तब तो कर्मके चैतन्यपनों भी चाहिये अर बलवानपनों भी चाहिये सो तो है नाही, सहज ही निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है । जब उन कर्मनिका उदयकाल होय तिस कालविणे आप ही
आत्मा स्वभावरूप न परिणमै विभावरूप परिणमै वा अन्य द्रव्य हैं से तैसे ही सम्बन्धरूप होय परिणमें । जैसें काहू पुरुषकै सिरपरि मोहनधूलि परी है सिसकरि सो पुरुष बावला भया तहां । उस मोहनधूलिकै ज्ञान भी न था अर बलवानपना भी न था अर बावलापना तिस मोहनधूलि
ही करि भया देखिए है । मोहनधूलिका तौ निमित्त है अर पुरुष भापही घावला हुआ परिणम है । ऐसा ही निमित्त नैमितिक बनि रहा है। बहुरि जैसे सूर्यका उदयका कालविणे चकवा चकवीनिका संयोग होय तहां रात्रिविषै किसीने दोषबुद्धितै जोरावरीकरि जुदे किये। नाहीं । दिवसत्रि काहूकरुणाबुद्धिकरि मिलाए नाहीं सूर्य उदयका निमिन्नपाय आप ही मिले हैं ऐसा ही निमित्तनैमित्तिक बनि रह्या है । तैसें ही कर्मका भी निमित्तनैमित्तिकभाव || जानना । ऐसें कर्मका उदयकरि अवस्था होय है। बहुरि तहां नवीन बंध कैसे होय है सो | कहिए है,
' जैसे सूर्यका प्रकाश है सो मेघपटलतें जितना व्यक्त नाही तितनेका तो तिसकाल | | विषे अभाव है बहुरि तिस मेघपटलका मंदपनाते जेता प्रकाश प्रगटै है सो तिस सूर्यके ख
అంగం నుంచి నిరంతరం
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