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________________ मो.मा. 'प्रकाश गमनादि होय सके । दोऊनिविषै एक बैठि रहे तो गमनादि होय सकै नाहीं अर दोऊनिविषै एक बलवान होय तौ दूसरेकौं भी घीसि ले जाय तैसें आत्माकै अर शरीरादिकरूप पुदगलकै एक क्षेत्रवगाहरूप बंधान है तहां आत्मा हलन चलनादि किया चाहै अर पुद्गल तिस शक्तिकरि रहित हुवा हलन चलन न करै वा पुद्गलविषे शक्ति पाइए है आपकी इच्छा न होय तौ हलनचलनादि न होय सकै । बहुरि इनिविषै पुद्गल बलवान होय हाले चाले तो ताकी साथि विना इच्छा भी आत्मा आदि हालै चाले । ऐसें हलन चलनादि होय सके । बहुरि याका अपजस आदि (?) बाह्य निमित्त बने है । ऐसें ए कार्य निपजै हैं, तिनिकरि मोहके अनुसार | आरसा सुखी दुःखी भी हो है । नामकर्मके उदयते स्वयमेव ऐसे नानाप्रकार रचना हो है और | कोई कर नहारा नाहीं है । बहुरि तीर्थंकरादि प्रकृति यहां है ही नाहीं । बहुरि गोत्रकर्मकरि ऊंचा नीचाकुलविषै उपजना हो है तहां अपना अधिकहीनपना प्राप्त हो है मोहके निमित्ततें | तिनिकरि आत्मा सुखदुखी भी हो है । ऐसें अघातिकर्मनिका निमित्त अवस्था हो है । या प्रकार इस अनादि संसारविषै घाति अघातिक कर्मनिका उदयकै अनुसार आत्माकै अवस्था हो है सो हे भव्य ! अपने अंतरंग विषै विचारि देखि, ऐसें ही है कि नाहीं सो ऐसा विचार | किए ऐसा ही प्रतिभास है । बहुरि जो ऐसें है तो तू यह मानि मेरै अनादि संसार रोग पाइए है, ताके नाशका मोकों उपाय करना । इस विचारतें तेरा कल्यण होगा । इति श्रीमोक्षमार्गप्रकाशक नाम शास्त्रविषै संसार अवस्थाका निरूपक द्वितीया अधिकार सम्पूर्ण भया ॥ २ ॥ ६६
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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