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वारणतरण उद्देश्यसे वह धर्मध्वान करता है। देवपूजा, गुरुभक्ति, शास्त्रस्वाध्याय, संयम, तप व दान इन नित्य
श्राचार ॥१४२॥ ४ गृहस्थोंके छः कर्मोंको भले प्रकार पालता है, जिसका फल माघ परिणामोंकी शुडि वाहना है।*
सम्यक्तीको क्षणभंगुर विषयभोगोंकी कोई इच्छा नहीं होती है, इसलिये वह इन्द्र नागेन्द्र अहमिंद्र चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण, तीर्थकर आदि बडे २ ऐश्वर्यशाली महत्वशाली पदोंकी आशा बिलकुल नहीं रखता है और न जगतके विनाशीक चेतन अचेतन पदार्थोंसे स्नेह रखता है। स्त्री पुत्र मित्र सेवकादिसे यथायोग्य व्यवहार करता हुआ व जगतके प्राणियों के साथ सभ्यता व नीतिसे वर्ताव करता हुआ वह भीतरसे उसी तरह अलिप्त रहता है, जैसे कमल जलसे अलिप्त रहता है। ज्ञानी सम्यक्ती लोभ अति अंद होता है। अपने २ पदके अनुसार संतोषपूर्वक आजीविकाका साधन करता है। दूसरोंको बहुत लोभ होते देखकर परिणामों में लोभपना नहीं जगाता है। किसी तरहका गारव या अभिमान नहीं रखता है। रस गारव, ऋद्धि गारव, बुद्धि गारव ये तीन गारव प्रसिद्ध हैं। सो सम्यक्तीके नहीं होते हैं। रसायन विद्यासे रस बनानेका गारव या मिष्ट रसीले पदार्थोके मिलनेका गारव रस गारव है। ऋद्धि आदि कोई चमत्कार तपके बलसे पैदा होजावे तो उसका अहंकार करना यह ऋद्धि गारव है। बुद्धि प्रबल होनेसे पदार्थों के समझनेकी अधिक शक्ति होते हुए बुद्धिका घमंड करना बुद्धि गारव है। ज्ञानी सम्यक्ती इन लाभोंको क्षणिक समझता है। इनकी शक्ति होनेपर भी कोई प्रकारका मद नहीं करता है।
श्लोक-दर्शनं शुद्ध तत्वार्थ, लोक मूढं न दृष्टते।
यस्य लोकं च सार्थ च, त्यक्तते शुद्ध दृष्टितं ॥ २४१ ।। अन्वयार्थ-(दर्शनं शुद्ध तत्वार्थ) शुद्ध आत्मतत्वमें दृढ प्रतीतिको सम्यग्दर्शन कहते हैं। वहाँ (लोकमूदं न दृष्टते) लोकमूढता नहीं दिखलाई पड़ती है। (यस्प लोकं च सार्थ च स्यको ) जिसने सर्व
लोकको व उसके सर्व पक्षायोंको पर जानकर उनसे मोह छोड दिया है (शुद्ध दृष्टित) मात्र शुद्ध * दृष्टिको धारण कर लिया है।
विशेषार्थ-जिसके पूजनीय, माननीय, दर्शनीय, मननीय, अनुभवनीय एक मात्र अपना शुद्ध आत्मा है, जो सिख भगवानको भी पर जानता है, उनकी पूजा व भक्ति भी आलम्बन जानकर
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KAKIRALEKALEGAKAREKARSA