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________________ वारणवरण ॥२४३॥ करता हुआ भी उनसे वैरागी है, जानता है जहांतक स्वात्मानुभव नहीं होगा वहांतक मोक्षका मार्ग नहीं है। ऐसा सम्यक्ती जीव लोक मूढतामें कैसे फंस सक्ता है। लोगों की देखादेखी मूढ प्राणी घन, पुत्र, जय, यश आदिके लोभसे लोक मूढता में फंस जाते हैं । सम्यक्ती को इन बातोंकी तरफ आसक्ति नहीं है । यह जानता है कि वे सब पुण्य वृक्षके फल हैं। यदि मैं गृहस्थ हूं तो मेरा कर्तव्य समताभाव से नीतिपूर्वक उद्यम करना है । पुण्यकी सहायता होगी तो ये पदार्थ मिल सकेंगे। सम्यक्ती लोकके पदार्थों का स्वभाव शास्त्र द्वारा जानता हुआ भी किसीमें ममता भाव नहीं रखता है । परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है, मेरे शुद्ध गुण व पर्याय हैं वे मेरेमें सदा विराजित है, इस प्रकारके ज्ञान वैराग्य से पूर्ण सम्यग्दृष्टी जीव रहता हुआ सदा आनन्द भोगता है । श्लोक — देवमूढं च प्रोक्तं च क्रियते येन मूढयं । दुर्बुद्धि उत्पाद्यते जाव, तावदिष्टि न शुद्धए ॥ २४२ ॥ अन्वयार्थ - (देव मूढं च प्रोक्तं च ) देव मूढ़ताका स्वरूप कह चुके हैं (येन मूढथं क्रियते) जिससे ऐसी मूढता की जाती है ( जाव दुर्बुद्धि उत्पाद्यते ) व उसके देव मूढताकी खोटी बुद्धि पैदा होती रहती है। (ताब) तबतक (दिष्टि न शुद्धर ) श्रद्धा निर्मल नहीं है । विशेषार्थ–देव सूढ़ताका स्वरूप कहा जाचुका है कि संसारीक प्रयोजनकी इच्छा से जो रागी द्वेषी देवोंको पूजना है सो देव मूढ़ता है । जो कोई अपनेको श्रद्धालु मानकर भी रागी द्वेषी देवोंकी पूजारूपी मूढताको नहीं छोड़ता है, उसके सदा काल खोटी बुद्धि उत्पन्न हुआ करती है । अमुक देवको मानूंगा तो यह लाभ होगा, अमुक देवीको मानूंगा तो यह लाभ होगा, अमुकको मानूंगा तो यह हानि होगी । जानता हुआ भी कि कुदेवोंकी भक्ति व्यर्थ है फिर भी पूर्व संस्कार से पुत्रकी बीमारी अच्छी करनेको, किसी घनके लाभको चाह करके कुदेवोंकी भक्ति स्वयं करता है, कराता है व अनुमोदना करता रहता है। यह मिथ्या शल्य जबतक उसके भावों में गडी रहती है वह कभी भी निःशंक निर्भय व शुद्ध श्रद्धावान नहीं होने पाता है । वह इस बातको भूल जाता है कि इन कुदेवोंकी भक्ति से वृथा ही श्रद्धानको मलीन करना है । हरएक प्राणी अपने २ किये हुए पुण्यकर्म व पापकर्म के आधीन है उसको कोई मेट नहीं सक्ता है। वीतराग जिनेन्द्र भगवानकी श्रावकाचार ॥२४२॥
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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