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श्रावकार
द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी मर्यादा लिये पुनलोंका व संसारी जीवोंका स्वरूप विना इंद्रिय तथा मनकी सहायताके प्रत्यक्ष जान लेना अवधिज्ञान है। जैसे किसीके पिछले अगले जन्मकी बातोंका प्रत्यक्ष देख लेना।
किसीके मन, वचन, काय द्वारा किये हुए कार्यको व विचारको जो कोई अपने मनमें चिंता वन कर रहा हो व कर चुका हो व करेगा उस सर्व विषयको द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी मर्यादासे आत्मा द्वारा प्रत्यक्ष जान लेना मन:पर्यय ज्ञान है। जैसे कोई साधु श्री रामचन्द्रका चरित्र चितवन कर रहा हो, मनापर्यय ज्ञानवाला साधु उस साधुके चिंतवन किये हुए विषयको मनापर्यय ज्ञानसे जानसक्ता है। इस ज्ञानका विषय परके मनोगत पदार्थ ही हैं। केवल ज्ञान शुद्ध स्वाभाविक ज्ञान है जो सर्व द्रव्योंकी सर्व पर्यायोंको एक समयमें यथार्थ प्रत्यक्ष जाम सक्ता है।
चार ज्ञान तक साथ होसक्के हैं। केवलज्ञान अकेला ही होता है। चार ज्ञानधारी तकको गुरु कहते हैं। श्री तीर्थकर भगवानके जितने गणधर होते हैं वे चार ज्ञानधारी होते हैं। श्री महावीर भगवानके ११ गणधरों में श्री गौतमस्वामी मुख्य थे, इन गणधरोंसे लेकर मात्र दो ज्ञान मतिश्रुत धारी तक जितने आरम्भ परिग्रह त्यागी, आत्मज्ञानी आत्मध्यानी, शुद्ध तत्वके अनुभव कर्ता व यथार्थ धर्मके उपदेष्टा साधु हैं वे सर्व गुरु पूजने योग्य, भक्ति करने योग्य हैं। गुरुपदमें आचार्य, उपाध्याय व साधु परमेष्ठी गर्मित हैं
श्लोक-रखत्रय स्वभा च, अरूपी ध्यानसंयुतं ।
साक्षस्य व्यक्तरूपेन, केवलं पूतं ध्रुवं ॥ ७१ ॥ कर्मत्रिविधि निर्मुक्तं, व्रततप संयम युतं ।
शुद्धतत्त्वं च आराध्यं, दृष्टं सम्यकदर्शनं ॥ ७२ ॥ अन्वयार्थ-वे सचे गुरु ( रत्नत्रय स्वभावं च ) रत्नत्रय स्वभावमई (शुद्धतत्त्वं च ) शुद्ध आत्मतत्वका ही (आराध्य) आराधन, मनन या अनुभव करते हैं। (अरूपी ध्यानसंयुतं) जहां रूपातीत ध्यान होरहा है ( साक्षस्य) जहां आत्माका (त्यक्तरूपेन) प्रगट रूपसे स्वसंवेदन हे, (केवल) वह तत्व
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