________________
श्रावकाचार
वारणतरण
परके सहाय रहित केवल है (पूतं ) पवित्र है, (ध्रुवं ) अविनाशी है (कर्म त्रिविधि) तीन प्रकार कर्म ॥७४॥ द्रव्य कर्म, भाव कर्म, नोकर्मसे (निर्मुक्त) रहित है, (व्रत तप संयम युतं ) वहा व्रत, तप व संयम भी है
व जहां (दृष्टं ) साक्षात् (सम्यग्दर्शनं ) सम्यग्दर्शन है।।
विशेषार्थ-श्री गुरु शुद्ध आत्मतत्वका ध्यान करते हैं। उसीका अनुभव करते हैं। उसीकी भावना भाते हैं। उसीका पाठ करते हैं। क्योंकि शुद्ध आत्माकी ओर दृष्टि वीतराग भावको उत्पन्न करनेवाली है। रागदेष मैलको काटनेवाली है। कर्मकी निर्जरा करनेवाली है। यही तत्व साक्षात मोक्ष साधक है, शुख आत्मतत्वका अनुभव रुपातीत ध्यानसे होता है जहां सिद्ध स्वरूपको अपने आत्मामें धारण किया जाता है व आपको सिद्धरूप अनुभव किया जाता है व आपको सिद्ध रूप अनुभव किया जाता है वहीं रूपातीत ध्यान है, इस अनुभवके समय आत्मा स्वसंवेदन प्रत्यक्ष रूपसे व्यक्त है। इस समय उपयोग पांच इंद्रिय तथा मनसे बाहर होकर आत्मस्थ होजाता है, इसीको आपसे आपका ज्ञान या स्वसंवेदन ज्ञान कहते हैं। यहां मात्र केवल एक आपका ही अनुभव है। पर पदार्थकी ओर किंचित् भी ध्यान नहीं है। यह आत्मतत्वका अनुभव
पवित्र है। रागवेष मलसे रहित है तथा धुव है, सदा चला जानेवाला है। यदि कोई साधु W शुद्धोपयोगमें जमकर क्षपकश्रेणी चढ़े तो फिर अनंतकाल तक यह स्वानुभव बना रहता है। जहां ॐ शुद्धात्माका अनुभव है वहां साक्षात् सम्पदर्शन है। उपयोगमय सायग्दर्शन है। जब कभी कोई
सम्यग्दृष्टी अन्य कार्यों की तरफ उपयोगवान होता है, आत्माकी तरफ उपयोगवान नहीं होता है। तब उसके सम्यग्दर्शन लब्धिरूपसे रहता है,द्रव्यनिक्षेप रूप रहता है, भाव निक्षेपरूप नहीं होता है। स्वानुभवमें भाव निक्षेप रूप है। जिस आत्मतत्वकी आराधना की जाती है वह ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, रागबेषादि भाक्कर्म, शरीरादि नोकर्म इन तीन कर्मसे रहित शुद्ध है। व जब साधु इस तत्वका अनुभव करते हैं तब उनकी आत्मामें निश्चयसे व्रत हैतप है तथा संयम है। इससे यह दिखलाया है कि जहां निश्चय रत्नत्रय होता है वहां व्यवहार रत्नत्रय स्वयं प्राप्त है। व्यवहार रत्न अपके द्वारा ही निश्चय रत्नत्रय प्राप्त होता है। शुद्धात्मा ही उपादेय है यह निश्चय सम्यग्दर्शन है। शुखारमाहीका यथार्थ ज्ञान निश्चय सम्यग्ज्ञान है। शुद्धात्माही में तन्मयता निश्चय सम्यक्चारित्र है।