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________________ बारणवरण श्रावधवार शुद्धास्माके अनुभवमें तीनों अभेदरूपसे हैं तब वह साधु यद्यपि विकल्प रहित है तो भी उसकी पारणामें सात तत्वका, देव, गुरु शास्त्रका सच्चा विश्वासरूप व्यवहार सम्पग्दर्शन है। व इनही तत्वोंका यथार्थ ज्ञानरूप सम्यग्ज्ञान है। तथा अहिंसादि पांच महावतों में आरुढ़पना है। इच्छा निरोधरूपी तप है तथा सामायिक नामका संयम है। आत्मध्यान करते हुए व्यवहार व निश्चय दोनों रत्नत्र. पका लाभ होरहा है ऐसा ही द्रव्यसंग्रहमें श्री नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती कहते हैं दुविहं पि मोक्खहे शाणो पाउणदि ज मुणी णियमा । तम पयत्तचित्ता जूयं झाणं समभसह ॥ ४७ ॥ भावार्थ-दोनों ही प्रकारके मोक्षमार्गको मुनि नियमसे ध्यान करते हुए पालेता है इसलिये तुम लोग प्रयत्न चित्त होकर ध्यानका भले प्रकार अभ्यास करो । आस्मध्यानीको व्रतादिमें आरूढ रहना चाहिये । जैसा वहीं कहा है तवमुदवदवं चेदा ज्ञाणरहधुरंधरोहवे जमा । तमा तत्तियणिरदा तल्लद्धीए सदा होह ॥१७॥ भावार्थ-क्योंकि तप करनेवाला, शास्त्रज्ञानी तथा व्रतवान आस्मा ध्यानरूपी रथकी धुरीको चलानेवाला होता है इसलिये ध्यानकी सिद्धिके लिये इन तीनों में रत सदा रहना योग्य है। श्लोक-तस्य गुणं गुरुश्चैव, तारनं तारकं पुनः। मान्यते शुद्ध दृष्टिश्च, संसारे तारनं सदा ॥७३॥ अन्वयार्थ-तस्य) उस शुद्ध आत्मीक तस्वकी आराधनाका (गुण ) फल यह कि (गुरुश्चैव तारनं) वह उस अनुभव करनेवाले गुरुको भी संसारसे तार देता है (पुनः ) तथा इसी तस्वके धारी गुरु (तारक) अन्य भव्य जीवोंको संसार-समुद्रसे तारनेको जहाजके समान होजाते हैं (मान्यते) वे ऐसा मानते हैं कि (शुद्ध दृष्टिश्च ) कि गुड आत्मतत्वकी दृष्टि ही ( सदा) सदा ही (संसारे तारनं ) संसारसे पार उतारनेवाली है। विशेषार्थ-श्री गुरु तरनतारन कहाते हैं। व आप भी संसार-समुद्रसे तरते हैं व इसरोंको भी तारते हैं। वह जहाज जिसपर चढ़कर वे आप तरते हैं व दूसरोंको भी लेजाते हैं एक शुर भास्मीक तत्वका अनुभव है। सीमें यह गुण है कि जो उसका शरण ले वह कोको काटकर, विनोका
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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