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सारणतरण
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नाशकर सीधा मोक्ष द्वीपको चला जावे। श्रीगुरुको यह दृढ़ श्रवान है कि मात्र निश्चय रत्नत्रयमई शुद्ध आत्मतत्वकी दृष्टि ही, व उसीका स्वसंवेदन ज्ञान व साक्षात्कार ही संसार-समुद्रसे तारने की शक्ति रखनेवाला एक अनुपम जहाज है, इसके सिवाय और कोई जहाज या उपाय हो नहीं सका है । वे श्रीगुरु इसी तत्वकी आराधनाका शिष्योंको उपदेश करते हैं, सचा मोक्षमार्ग बताते हैं, व आप भी इसीका अनुभव करते हुए वीतरागी होजाते हैं और यदि तद्भव मोक्ष होने की योग्यता हुई व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव हुआ तो मुक्त हो परमात्मापदपर पहुंच जाते हैं। यहां यह दिखाय है कि ऐसे आत्मानुभवी महाव्रतोंके धारी, तपस्वी, संगमी गुरुको ही सच्चा गुरु मानो । इसी गुरुकी सेवा भक्ति करो तब हो सच्चा भात्मधर्म मिलेगा व मोक्षमार्गपर गमन होसकेगा । अन्य किसी संसारासक ख्याति लाभ पूजादिकी चाह धारी आत्मानुभव रहित साधुको कभी सुगुरु नहीं मानना चाहिये ।
श्लोक – यावत् शुद्ध गुरुं मान्यो, तावत् विगतविभ्रमः । शल्यं निकंदवं येन तस्मै श्री गुरुभ्यो नमः ॥ ७४ ॥
अन्वयार्थ - ( यावत् ) जबतक (शुद्धगुरुं ) शुशुद्ध आत्माके अनुभवी चारित्र से शुद्ध ऐसे गुरुकी ( मान्यः ) मान्यता रहेगी, भक्ति, पूजा व प्रतिष्ठा, संगति की जायगी ( तावत् ) तबतक ( गतविभ्रमः) कोई मिथ्याभाव नहीं रहेगा ( येन ) जिस गुरुने ( शस्य ) माया, मिथ्या निदान तीन शल्यों को (निकंदनं ) नष्ट कर दिया है । ( तस्मै ) उस (श्री गुरुभ्यो ) श्री गुरुको (नमः) नमस्कार हो ।
विशेषार्थ - जो कोई भव्यजीव चारित्रवान, व्रन, तप, संयमके धारी, शुद्ध आत्माके अनु मवी गुरुकी सेवा करेगा उनहीको सच्चा तरन तारन गुरु मानेगा, वह सदा संसार के मोह से दूर रहेगा । जबतक वह ऐसे सद्गुरुका भक्त होगा तबतक वह अवश्य मिध्यामार्ग से बचा रहेगा, उसको आत्मतत्वमें व मोक्षमार्ग में कोई भ्रम या शंका नहीं पैदा होगी। श्रीगुरुका उपदेश शंकाको निवा रनेवाला सदा मिलता रहेगा । जो कोई ऐसे सच्चे गुरुका शरण छोडेगा वह संसारमार्गी होकर भ्रम में पड़ जायगा, शंकाशील होजायगा, मोहमें फंस जायगा । यह सबै गुरु शल्य रहिन होते हैं। मायाचार करके कभी कोई मन, वचन, कायकी क्रिया नहीं करते हैं। जो साधुके अठाईस मूलगुण
श्रावकाचार
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