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करणतरण
॥ ७७ ॥
प्राचीन दिगम्बर जैन आचायने बताए हैं उनको भले प्रकार पालते हैं वे २८ मूलगुण श्री वह केरस्वामीने मूलाचार में इस भांति कहे हैं
पंचय महव्वयाई समिदीओ पंच निणवरुचिट्ठा | पंचेर्विदियरोहा छप्पिय आवासया होचो ॥ २ ॥ अचेल भण्हाणं खिसियणमदतघंसणं चैव । ठिदि भोगनेयभसं मुळगुणा अट्टवीसा दु ॥ १ ॥
भावार्थ - श्रीगुरु नीचे प्रकार साधुके २८ मूलगुण पालते हैं५- महाव्रत - अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, परिग्रह त्याग । ५- समिति - ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदान निक्षेपण, प्रतिष्ठापना । ५- इंद्रियोंका विरोध ।
- आवश्यक नित्यकर्म-सामायिक, स्तुति, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग । - केशोंका लॉच - अर्थात् मस्तक दाढ़ी मूछोंके वालोंको हाथोंसे ही नोच डालना । -अचेलक वस्त्रादि कोई आवरण शरीरपर न रखकर नग्न रहना ।
१- अस्नान - जलादिसे स्नान नहीं करना ।
१- क्षितिशयन - पृथ्वीपर शयन करना ।
१- अदंतघसन - दांतोंको घसने के लिये दंतवन न करना ।
१- स्थिति भोजन - खड़े होकर भोजन हाथोंमें करना ।
१ - एकभुक्त - २४ घंटोंमें दिनमें एक वार भोजन करना । २८ मूल गुण साधुके ।
श्रीगुरु व्रत तप संयम सहित होते हैं । यह बात ऊपरके श्लोकोंमें कही है इसीसे यह २८ मूलगुण रूप साधु व्रतके धारी होते हैं। अनशनादि बारह प्रकारका तप पालते हैं व मुख्यता से सामायिक रूप आत्मसंयममें व व्यवहारमें इंद्रिय व मनका निरोध रूप तथा छः काय के प्राणियों की दयारूप संयम में प्रवर्तते हैं। ऐसे निग्रंथ आत्मरमी साधु ही परम गुरु मानने योग्य हैं। उनके चारित्र में कोई मायाचारका भाव नहीं होता है न कोई मिथ्याभाव होता । वे पूर्ण श्रद्धा सहित व्रत पालते हैं न कोई निदान करते हैं, न कोई भोगाभिलाष है, न स्वर्गादि अहमिंद्रादिकी चाह है,
श्रावकाचार