________________
तारणतरण
॥३८६ ॥
विशेषार्थ – यहां यह बताया है कि दर्शन प्रतिमाघारी श्रावकका कर्तव्य है कि २५ दोष सहित सम्यक्तको पालते हुए व स्थूलपने पांच अणुव्रतोंका साधन करते हुए ॐ ह्रीं श्रीं मंत्रके द्वारा पांच परमेष्ठीका व चौवीस तीर्थकरोंका स्वरूप विचार करे । दर्शन प्रतिमाधारीको उनके स्वरूपको फिर अपने आत्माके स्वरूपसे मिलान करना चाहिये । शुद्ध निश्चयनय से अपनेको सिद्धरूप शुद्ध अनुभव करना चाहिये । केवल मात्र व्यवहार चारित्र में ही लीन होकर व मात्र ज्ञानसे संतोष मानकर न बैठ रहना चाहिये किंतु प्रातःकाल और संध्याकाल अवश्य एकांत में बैठकर सामायिकका अभ्यास करना चाहिये | शांत चित्त हो अनेक मंत्रोंके द्वारा पदस्थ ध्यानका व पृथ्वी आदि पांच धारणाओंके द्वारा पिंडस्थ ध्यानका अभ्यास करना चाहिये । शुद्धात्माका अनुभव हो यथार्थ में धर्मका सच्चा अनुभव है । इसके अभ्यासके लिये अन्य सब चारित्र किया जाता है । ऐसा निश्चय रखके आत्मध्यानका अभ्यास करना चाहिये ।
श्लोक - आज्ञा वेदकश्चैवं, पदवी दुतिय आचार्यं ।
ज्ञानं मति श्रुतं चिंते, धर्मध्यानरतो सदा ॥ ३९७ ॥
मन्वयार्थ - ( आज्ञा वेदकश्चैवं ) आज्ञा सम्यक्त तथा वेदक सम्यक्तको इस तरह पालते हुए (पदवी दुतिय भाचार्य) दूसरे पदका आचरण करना योग्य है ( ज्ञानं मति श्रुतं चिंते ) मतिज्ञान श्रुतज्ञानको चिंत वन करना योग्य है ( धर्मध्यानरतो सदा ) ऐसा दर्शन प्रतिमाधारी सदा धर्मध्यान में रत रहता है।
1
विशेषार्थ — पहली पदवी अविरत सम्यक्त की है उसके आगे दूसरी पदवी दर्शन प्रतिमाकी है। यद्यपि दर्शन प्रतिमावालेके सामान्यसे व्यवहार सम्पक्त तथा निश्चय सम्पक्त तीनों ही प्रकार संभव है-उपशम, वेदक व क्षायिक | परन्तु उस पंचमकालकी अपेक्षा विचारते हुए ग्रन्थकर्ताका ऐसा आशय सूचित होता है कि क्षायिक सम्यक्त तो अब संभव नहीं है तथा उपशम सम्यक्त की स्थिति ही अन्तर्मुहूर्त है, अधिक काल ठहर नहीं सकता है तब व्यवहार सम्पक्त तथा वेदक सम्यक्त ये ही दोनों दीर्घकाल तक इस समय इस भरतक्षेत्र में ठहर सकते हैं। जिनेन्द्र भगवानकी आज्ञा प्रमाण देव, शास्त्र, गुरुका श्रद्धान तथा जीवादि सात तत्वोंका श्रद्धान रखना व्यवहार सम्यक्त है । इसीको यहां आज्ञा सम्यक्त कहा है । क्षयोपशम सम्यक्तको हो वेदक सम्यक्त कहते हैं वहां अनंतानुबन्धी
श्रावकाच
॥१८६