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आपकों आपरूप परकों पररूप यथार्थ जान्या करे, तेसें ही श्रद्धानादिरूप प्रवर्त्ते, तब ही सम्यग्दर्शनादि हो है । ऐसें जानना । तातें बहुत कहा कहिए, जैसें रागादि मिटावनेका श्रद्धधान होय, सो ही श्रद्धान सम्यग्दर्शन है । बहुरि जैसे रागादि मिटावनेका जानना होय, | सो ही जानना सम्यग्ज्ञान है । बहुरि जैसें रागादि मिटें, सो ही आचरण सम्यक्चारित्र है । ऐसा ही मोक्षमार्ग मानना योग्य है । या प्रकार निश्चयनयको आभास लिए एकांतपक्षके धारी जैनाभास तिनकै मिथ्यात्वका निरूपण किया ।
अब व्यवहाराभास पक्षके जैनाभासनिकै मिथ्यात्वका निरूपण कीजिए है-जिनश्रागमविषै जहां व्यवहारकी मुख्यताकरि उपदेश है, ताक मानि बाह्यसाधनादिकहीका श्रद्धानादिक करे है, तिनके सर्व धर्मके अंग अन्यथारूप होय मिथ्याभावकौं प्राप्त होंय हैं। यहां ऐसा जानि लेना - व्यवहारधर्मकी प्रवृत्तितै पुण्यबंध होय है, तातें पापप्रवृत्ति अपेक्षा तौ याका निषेध है। नाहीं । परंतु इहां जो जीव व्यवहार प्रवृत्तिहीकरि सन्तुष्ट होइ, सांचा मोक्षमार्गविषै उद्यमी न होय है, ताक मोक्षमार्गविषे सन्मुख करनेकौं तिस शुभरूप मिथ्याप्रवृत्तिका भी निषेधरूप निरूपण कीजिए है। जो यहु कथन कीजिए है, ताकौं सुनि जो शुभप्रवृत्ति छोड़ि अशुभविषै प्रवृत्ति करोगे, तौ तुम्हारा बुरा होगा, और जो यथार्थ श्रद्धाबकरि मोक्षमार्गविषै प्रवृत्त होवोगे, तो तुम्हारा भला होगा । जैसे कोऊ रोगी निर्गुण औषधिका निषेध सुत्नि औषधि साधन
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