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म्यक्तकों वेदकसम्यकदृष्टीही पावे है । ताते याका कथन यहां न किया है । ऐसें सादि मिप्रकाश
थ्यादृष्टीका जघन्य तो मध्य अंतर्मुहर्त्तमात्र उत्कृष्ट किंचिदून अर्द्धपुदगल परिवर्तनमात्र काल जानना। देखो, परिणामनिकी विचित्रता कोई जीव तो ग्यारवें गुणस्थान यथाख्यातचारित्र पाय बहुरि मिथ्यादृष्टी होय, किंचित् ऊन अर्द्धपुद्गल परिवर्तन कालपर्यंत संसारमें रुलै, अर कोई नित्य निगोदमैंसौं निकसि मनुष्य होय, मिथ्यात्व छूटे पीछे अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान पावै । ऐसें जानि अपने परिणाम बिगड़नेको भय राखना । अर तिनके सुधारनेका उपाय करना । बहुरि इस सादिमिथ्यादृष्टीकै थोरे काल मिथ्यात्वका उदय रहै, तो बाह्य जैनीपना |
माही नष्ट हो है । वा तत्त्वनिका अश्रद्धान व्यक्त न हो है । वा विना विचार किए ही वा । स्तोक विचारहीते बहुरि सम्यक्तकी प्राप्ति होय जाय है । बहुरि बहुत काल मिथ्यात्वका उदय
रहै, तो जैसी अनादि मिथ्यादृष्टीकी दशा तैसी याकी दशा हो है । गृहीत मिथ्यात्वकों भी
गृहै है । निगोदादिविषै भी रुलै है । याका किछु प्रमाण नाहीं । बहुरि कोई जीव सम्यक्तते। ॥ भ्रष्ट होय सासादन हो है । सो तहां जघन्य एक समय उत्कृष्ट छह भावली प्रमाण काल ||
रहै है, सो याका परिणामकी दशा वचनकरि कहनेमें आवती नाहीं । सूक्ष्ममात्र काल कोई जातिके केवलज्ञानगम्य परिणाम हो हैं । तहां अनंतानुबंधीका तो उदय हो है, मिथ्यात्वका उदय न हो है । सो आगम प्रमाणते याका स्वरूप जानना । बहुरि कोई जीव सम्यक्तते नष्ट ४०