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________________ - - प्रकाश -- - - होय, मिश्रगुणस्थानको प्राप्त हो है । तहां मिश्रमोहिनीयका उदय हो है । याका काल मध्य अंतर्मुहर्तमात्र है । सो याका भी काल थोरा है, सो याकै भी परिणाम केवलज्ञानगम्य हैं। यहां इतना भास है जैसे काहूकौं सीख दई, तिसकौं वह किछु सत्य किंछु असत्य एकै । काल मान । तैसें तत्त्वनिका श्रद्धान अश्रद्धान एकै काल होय, सो मिदंशा है। कैई कहै | हैं-हमकों तो जिनदेव वा अन्य देव सर्व ही बंदने योग्य हैं । इत्यादि मिश्रश्रद्धानकों मिश्रगुणस्थान कहै हैं, सो नाहीं । यह तो प्रत्यक्ष मिथ्यात्वदशा है । व्यवहाररूप देवादिकका | श्रद्धान भए भी मिथ्यात्व रहै है, तो याकै तौ देव कुदेवका किछु ठीक ही नाहीं। याकै तौ यह विनयमिथ्यात्व प्रगट है । ऐसें जानना । ऐसें सम्यक्तके सन्मुख मिथ्यादृष्टीनिका कथन । |किया । प्रसंग पाय अन्य भी कथन किया है । या प्रकार जैनमतवाले मिथ्यादृष्टीनिका खरूप निरूपण किया। यहां नानाप्रकार मिथ्यादृष्टीनिका कथन किया है, ताका प्रयोजन यह जान ना, जो इन प्रकारनिकों पहचानि आपविष ऐसा दोष होय, तौ ताकौं दूरिकरि सम्यकश्रद्धानी। | होना । औरनिहीकै ऐसे दोष देखि कषायी न होना । जाते अपना भला बुरा तो अपने परिणामनिते हो है । औरनिकों रुचिवान् देखे, तो कछु उपदेश देय तिनका भी भला | करै । जाते अपने परिणाम सुधारनेका उपाय करना योग्य है । सर्वप्रकारके मिथ्यात्वभाव छोड़ि सम्यग्दृष्टी होना योग्य है । जाते संसारका मुल मिथ्यात्व है । मिथ्यात्व समान अन्य १०६ Ngoc vest veget=oSEXe keybo- oo- eee9eb6e8e309939569 Go • G+ -
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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