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________________ मो.मा. प्रकाश भया, ताकी परीक्षाकरि वाकै 'ऐसे' ही है' ऐसा श्रद्धान भया, पीछे पूर्व जैसे कहे तैसें अनेक | प्रकार तिस पदार्थश्रद्धानका अभाव हो है । सो यह कथन स्थूलपर्ने दिखाया है । तारतम्यकरि केवलज्ञानविषे भारी है— इस समय श्रद्धान है कि इस समय नाहीं हैं । जातें यहां मूल कारण मिथ्यात्वकर्म है । ताका उदय होय, तबतौ अन्य विचारादिक कारणमिलौ वा मति | मिलौ । स्वयमेवसम्यक्द्धानका भावहो है । बहुरि ताकाउदय न होयं, तब अन्यकारणमिलो वा मति मिलो स्वयमेव सम्यक् श्रद्धान होयजाय है । सोऐसें अंतरंग समयसंबन्धी सूक्ष्म दशाका | जानना छद्मस्थ होतानाहीं । तातैं अपनी मिथ्यासम्यक्रूप अवस्थाका तारतम्यंयाक निश्चय होय सकै नाहीं । केवलज्ञानविषै भासै हैं । तिस अपेक्षा गुणस्थाननिकी पलटनि शास्त्रविषै कही है। या प्रकार जो सम्यक्ततै भ्रष्ट होय, सो सादि मिथ्यादृष्टी कहिए । ताकै भी बहुरि सम्यक्तकी प्राप्ति विषै पूर्वोक्त पांच लब्धि हो हैं । विशेष इतना यहां कोई जीवकै दर्शनमोहकी तीन प्रकृतिकीसत्ता हो है । सो तिनकौं उषशमाय प्रथमोपशमसम्यक्ती हो है । अथवा काह सम्यक्तमोहनीयका उदय आवे है, दोय प्रकृतिनिका उदय न हो है, सो क्षयोपशमसम्यक्ती हो है । थाकै गुणश्रेणी आदि क्रिया न हो है । वा अनिवृत्तिकरण न हो है । बहुरि काहू के मिश्रमोहनीयका उदय श्रवे है, दोय प्रकृतिनिका उदय न हो है । सो मिश्र गुणस्थानक प्रात हो है । याकै करण न हो है । ऐसें सादिमिथ्यादृष्टीकै मिथ्यात्व छूटै दशा हो है । चायिकस વર
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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