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________________ । मो.मा. कैसै भया, सो कहिए हैप्रकाश तत्वश्रद्धानविषे प्रयोजनभूत एक यह है रागादिक छोड़ना । इस ही भावका नाम धर्म ॥ है। जो रागादिक भावनिकों बधाय धर्म मानें, तहां तत्त्वश्रद्धान कैसैं रहा । बहुरि जिनाज्ञातै प्रतिकूलही भया । बहुरि रागादिभाव तौ पाप हैं । तिनकौं धर्म मान्या, सो यह झूठश्रखान भया। तातै कुधर्म सेवनविर्षे मिथ्यात्त्वभाव है। ऐसे कुदेव कुगुरु कु शास्त्रलेवनविणे । मिथ्यात्वभावकी पुष्टता होती जानि, याका निरूपण किया। सो ही षट्पाहुविचै कह्या है-- कुच्छियदेवं धम्म कुच्छियलिंगं च बंदए जोइ । लज्जाभयगारवदो मिच्छादिट्टी हवे सो दु ॥१॥ जो लजातै भयतें बड़ाईते भी कुत्सित् देवकों वा कुत्सित् धर्मकों वा कुत्सित् लिंगकों, बंद हैं, सो मिथ्यादृष्टी हो हैं । ताते जो मिथ्यात्वका त्याग किया चाहै, सो पहले कुदेव कुगुरु कुधर्मका त्यागी होय । सम्यक्त्वके पचीस मलनिके त्यागविषै भी अमूढ़दृष्टि वा षडायतनविर्षे भी इनहींका त्याग कराया है । तातै इनका अवश्य त्याग करना । बहुरि कुदेवादिकके सेवन ते जो मिथ्यात्वभाव हो है, सो यह हिंसादिकपापनित महापाप है । याके फलते निगोद नर। कादिपर्याय पाईये है। तहां अनंतकालपर्यंत महासंकट पाईये है । सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति महा दुर्लभ होय जाय है । सो ही षट्पाहुडविणे ( भाव पाहुड़में ) कया है
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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