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म.पा. प्रकाश
कुधर्मके अंग हैं। कहां ताई कहिए जहां विषय कषाय वधे, अर धर्म मानिए, सो सर्व कु-11 धर्म जानने । देखो कालका दोष, जैनधर्मविषै भी कुधर्मकी प्रवृत्ति भई। जैनमतविषै जे । धर्मपर्व कहे हैं, तहां तो विषयकषाय छोरि संयम प प्रवर्त्तना योग्य है। ताकौं तौ आदरै नाहीं।। अर व्रतादिकका नाम धराय तहां नाना श्रृंगार बनावें, वा गरिष्ठभोजनादि करें, वा कुतूहलादि। करें, वा कषायबधावनेके कार्य करें, जूवा इत्यादि महा पापरूप प्रवत्त !
बहुरि पूजनादि कार्यविषै उपदेश तो यह था,-"सावद्यलेशो बहुपुण्यराशौ दोषाय नालं ।” पापका अंश, बहुत पुण्यसमूहविषे दोषके अर्थ नाहीं। इस छलकरि पूजाप्रभावनादि कार्यनिविषै| रात्रिविषे दीपकादिकरि वा अनंतकायादिकका संग्रह करि वा अयत्नाचार प्रवृत्तिकरि हिंसादिकरूप पाप तो बहुत उपजावें, अर स्तुति भक्तिआदि शुभपरिणामनिविषै प्रवर्ते नाही, वा थोरे । प्रवत्त, सो टोटा घना नफा थोरा, वा नफा किछु नाहीं। ऐसा कार्यकरनेमें तौ बुरा ही दीखना होय । बहुरि जिनमंदिर तो धर्मका ठिकाना है । तहां नाना कुकथा करनी, सोवना इत्यादिक प्रमादरूप प्रवत्त, वा तहां बाग वाड़ी इत्यादि बनाय विषयकषाय पोर्षे, बहुरि लोभी पुरुषनिकों दानादिक दें, वा तिनकी असल्यस्तुतिकरि महंतपनो माने, इत्यादि प्रकारकरि विषयकषायनिकों तौ वधावें, अर धर्म माने, सो जिनधर्म तौ वीतरागभावरूप है । तिसविर्षे ऐसी प्रवृत्ति कालदोषते ही देखिए है । या प्रकार कुधर्मसेवनका निषेधकिया । अव इसविषै मिथ्यात्वभाव |
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