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________________ मो.मा. प्रकाश कुच्छियधम्मम्मि रत्रो, कुच्छियपासंडिभन्तिसंजुत्तो । कुच्छियतवं कुतो कुच्छिय गइभायणो होई ॥१४०॥ जो कुत्सितधर्म्मविषे रत है, कुंत्सित पाखंडीनिकी भक्तिकरि संयुक्त हैं, कुत्सित तपकों करता है, सो जीव कुत्सित जो खोटीगति तार्कों भोगनहारा हो है । सो हे भव्य हो, किंचिमात्र लोभ' वा भयतै कुदेवादिकका सेवनकरि जातें अनंतकालपर्यंत महादुःख सहना होय ऐसा मिथ्यात्वभाव करना योग्य नाहीं | जिनधर्मविषे यह त आम्नाय है । पहले बड़ा पाप छुड़ाय पीछें छोटापाप छुड़ाया । सो इस मिथ्यात्वकों सप्तव्यसनादिकत भी बड़ापापजानि पहले छुड़ाया है । तातें जे पापके फलते डरें हैं, अपने आत्माकों दुखसमुद्र में न डुबाया चाहें हैं, ते जीव इस मिथ्यात्वक अवश्य छोड़ो । निंदा प्रसंसादिकके विचारत शिथिल होना योग्य नाहीं । जाते' नीतिविषे भी ऐसा कहा है निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुत्रतु लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम् । व वास्तु मरणं तु युगान्तरे वा न्यायात्पथः प्रविलन्ति पदं न धीराः ॥ १ ॥ जैनिंदे हैं तो निंदो र स्तवे हैं तो स्तवो, बहुरि लक्ष्मी आबो वा जावो, बहुरि अव २६२
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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