SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 757
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मो:मा. amesessmon n प्रकाश! ही मरण होहु या युगांतरविषै होहु परन्तु नीतिविष निपुणपुरुष न्यायमार्गते पेंड़हू चलें नाहीं।। | ऐसा न्याय विचारि निंदाप्रशंसादिकका भयतै लोभादिकतै अन्यायरूप मिथ्यात्वप्रवृत्ति करनी । युक्त नाहीं । महो, देव गुरु धर्म तो सर्वोत्कृष्ट पदार्थ हैं। इनके आधार धर्म है। इनविषै || शिथिलता राखें अन्यधर्म कैसे होय तातें बहुत कहनेकरि कहा, सर्वथाप्रकार कुदेव कुगुरु कुधर्म | का त्यागी होना योग्य है। कुदेवादिकका त्याग न किए मिथ्यात्वभाव बहुत पुष्ट हो है। अर । अबार यहां इनकी प्रवृत्ति विशेष पाईये है । ताते इनका निषेधरूप निरूपण किया है। ताकों जानि मिथ्यात्वभाव छोड़ि अपना कल्याण करो। इति मोक्षमार्गप्रकाशकनाम शास्त्रविर्षे कुदेवकुगुरुकुधर्मनिषेधषर्णनरूप छठा अधिकार समाप्त भया ॥ ६ ॥ wwecommee 40000200.03%00103300195003commerootacootacrocc0000000000000RIORKOCHORRHOID10000@ookORY दोहा। इस भवतरुको मूल इक, जानहु मिथ्याभाव । ताकों करि निर्मुल अब, करिए मोक्ष उपाव ॥ १॥ अर्थ, जे जीव जैनी हैं, जिन आज्ञाओं मानें हैं, अर तिनकै भी मिथ्यात्व रहै है ताका वर्णन कीजिए हैं-जाते इस मिथ्यात्वबैरीका अंश भी बुरा है, ताते सूक्ष्ममिथ्यात्व भी त्या २६
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy