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________________ मो.मा.|| जेते करें हैं, सेते एक इस ही प्रयोजन लिएं करें हैं, दूसरा प्रयोजन नाहीं । जिनके निमित्तते ।। प्रकाश | 1 दुख होता जाने, तिनिकों दूरकरनेका उपाय करै । अर जिनके निमित्ततें सुख होता जाने, तिनिके होनेका उपाय करै है। बहुरि संकोच विस्तार आदिक अवस्था भी आत्माके हो हैं, वा अनेक परद्रव्यका भी संयोग मिले है। परंतु जिनते सुख दुख होता न जाने, तिनके दूर करनेको वा होनेका कुछ भी उपाय कोऊ करै नाहीं । सो इहां आत्मद्रव्यका । ऐसा हो स्वभाव जानना । और तो सर्व अवस्थाकों सहि सके, एक दुखकों सह सकता। नाहीं । परवरा दुख होय तो यह कहा करे, ताको भोगवै, परन्तु स्ववशपनै तौ किंचित भी। । दुःखकों न सहै । अर संकोच विस्तारादि अवस्था जैसो होय, तेसी होय, तिसकों खव शपने भी भोगवे, सो खभावविषै तर्क नाहीं । आत्माका ऐसा ही खभाव जानना । देखो, दुःखी होय तब सूता चाहै, सो सोवनेमें ज्ञानादिक मंद हो जाय हैं, परन्तु जड़सारिखा भी होयं दुखकों दूर किया चाहै है, वा मूत्रा चाहै । सो मरनेमें अपना नाश मान है, | परन्तु अपना अस्तित्व खोकर भी दुःख दूर किया चाहै है । ताते एक दुखरूप पर्यायका अभाव करना ही थाका कर्तव्य है । बहुरि दुःख न होय, सो ही सुख है । सो यह भी प्रत्यक्ष भासे है। बाह्य कोई सामग्रीका संयोग मिलें जाके अंतरंगविणे आकुलता है, सो दुखी ही है। जाकै आकुलता नाहीं, सो सुखी है । बहुरि माकुलता हो है, सो रागादिक *OSMOREK00- 2oodc06120000-00000&amacro-cropdoorrooparnolanakoooofac000000000 -
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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