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________________ मो.मा. प्रकाश कपायभाव भएं हो है। जाते रागादि भावनिकरि यह तो द्रव्यनकों और भांति परिणमाया ।। चाहै, अर वै द्रव्य और भांति परिणमें, तब याकै आकुलता होय । तहां के तो आपके | रागादिक दूर होंय, के आप चाहै तैसें ही सर्वद्रव्य परिणमें तौ आकुलता मिटै । सो सर्व द्रव्य तो याकै आधीम नाहीं । कदाचित् कोई द्रव्य जैसी याकी इच्छा होय, तैसें ही परिणमें, | तो भी याकी सर्वथा आकुलता दुरि न होय । सर्व कार्य याक चाह्या ही होय, अन्यथा न होय, तब यह निराकुल रहै । सो यह तो होय ही सके नाही । जातें कोई द्रब्यका परिणमन कोई द्रब्यके आधीन नाहीं । तातै अपने रागादि भाव दूरि भएं निराकुलता होय, सो] | । यह कार्य बनि सके है । जाते रागादिक भाव आत्माका स्वभाव भाव तो है नाहीं । उपाधिक | भाव हैं, परनिमित्ततें भएं हैं, सो निमित्त मोहकर्मका उदय है । ताका अभाव भएं सर्व | रागादिक विलय होय जांय, तब आकुलताका नाश भएं दुख दूरि होय, सुखकी प्राप्ति होय । तातै मोहकर्मका नाश हितकारी है । बहुरि तिस आकुलताको सहकारी कारण ज्ञानावर- | णादिकका उदय है । ज्ञानावरण दर्शनावरणके उदयतै ज्ञानदर्शन संपूर्ण न प्रगटै है, ताते | याकै देखने जाननेकी आकुलता होय, अथवा यथार्थ संपूर्ण वस्तुका स्वभाव न जाने, तब रामादिरूप होय प्रवर्ते, तहां आकुलता होय । बहुरि अंतरंगके उदयते इच्छानुसार दानादि कार्य न बने, तब आकुलता होय । इनका उदय है, सो मोहका उदय होते आकुलताको || ४६६
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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