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________________ मो.मा. 400002001081-3800101000ROHORRORORisdom అనంతం-X000 100000 उपयोग लगावना । जीव कर्मादिकके नाना प्रकार भेद जानें, तिनविर्षे रागादिकरनेका प्रयोजन नाहीं, तातै रागादि बधै नाहीं । वीतराग होनेका प्रयोजन जहां तहां प्रगट है, तातै रांगादि । | मिटावनेर्को कारण है। यहां कोऊ कहै-कोई तो कथन ऐसा ही है, परंतु द्वीप समुद्रादिकके। योजनादि निरूपे, तिनमें कहा सिद्धि है । ताका उत्तर तिनकों जानें किछ तिनविष इष्ट अनिष्ट बुद्धि न होय, तातें पूर्वोक्त सिद्धि हो है। बहुरि वह कहै है, ऐसे है, तो जिसते किछू प्रयोजन नाहीं, ऐसा पाषाणादिकों भी। जानें तहां इष्ट अनिष्टपनो न मानिए है, सो भी कार्यकारी श्या । ताका उत्तर____ सरागी जीव रागादि प्रयोजनविना काहूकों जाननेका उद्यम न करै । जो स्वयमेव उनका। जानना होय, तो अंतरंग रागादिकका अभिप्रायके बशकरि तहांते उपयोगकों छड़ाया ही चाहै है । यहाँ उद्यमकरि द्वीप समुद्रादिकौं जाने है, तहां उपयोग लगावै है । सो रागादि, घटें ऐसा कार्य होय । बहुरि पाषाणादिकविणे ईने लोकका कोई प्रयोजन भासि जाय, तों रागादिक होय आवै । अर द्वीपादिकविष इस लोक सम्बन्धी कार्य किछु नाहीं । ताते रागादिकका कारण नाहीं । जो स्वर्गादिककी रचना सुनि तहां राग होय, तो परलोकसंबंधी होय ।। ताका कारण पुण्यकौं जाने, तब पाप छोड़ि पुण्यविषै प्रवर्ड । इतना ही नफा होय । बहुरि द्वीपादिकके जाने यथावत् रचना भासे, त, अन्यमतादिकका कह्या झूठ भासे, सत्य श्रद्धानी OloH0051800981008/OampoojalooHOTEcool 00000/- ఆరంఆంజనం
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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