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________________ प्रकाश | होय । बहुरि यथावत् रचना जान करि भ्रम मिटें उपयोगकी निर्मलता।होय, तातै यह। अभ्यास कार्यकारी है । बहुरि केई कहै हैं—करणानुयोगविष कठिनता धनी, तातें ताका अभ्यासविष खेद होय । ताकौं कहिए है जो वस्तु शीघ्र जानने में आवे, तहां उपयोग उलझे नाही, अर जानी वस्तुको वारंवार जाननेका उत्साह होय नाहीं, तब पापकार्यनिविष उपयोग लगि जाय । तातें अपनी बुद्धि । अनुसार कठिनताकरि भी जाका अभ्यास होता जाने, ताका अभ्यास करना । अर जाका | अभ्यास होय ही सकै नाही, ताका कैसे करें । बहुरि तू कहै है-खेद होय, सो प्रमादी रहने में तो धर्म है नाही । प्रमादतें सुखिया रहिए, तहां तो पाप होय । तातै धर्मकै अर्थ उद्यम करना ही मुक्त है । या विचार करणानुयोगका अभ्यास करना। , a बहुरि केई जीव कहै हैं—चरणानुयोगविष बाह्य व्रतादि साधनका उपदेश है, सो इनतें #किछ सिद्धि नाहीं । अपने परिणाम निर्मल चाहिए, बाह्य चाहो जैसे प्रवत्तौ । ताते या उप-11 देशते पराङ्मुख रहे हैं । तिनकों कहिए है-मात्मपरिणामनिकै और बाह्य प्रवृत्तिकै निमित्त । नैमित्तिक सम्बन्ध है । क्योंकि छद्मस्थके क्रिया परिणामपूर्वक हो है । कदाचित् विना परिणाम || है कोई क्रिया हो है, सो परवशते हो है । अपने उद्यमकरि कार्य करिए अर कहिए परिणाम इसरूप नाहीं है, सो यह भ्रम है । अथवा बाह्य पदार्थनिका आश्रय पाय परिणाम होय सके । ४१५
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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